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हिन्दू-मुस्लिम एकता

लिया है। भोजन करना उतनी ही महत्त्वपूर्ण क्रिया है, जितनी महत्त्वपूर्ण जीवनकी सफाई-सम्बन्धी अन्य आवश्यकताएँ हैं। और यदि मानव-जातिने, अपने-आपको बहुत हानि पहुँचाकर, भोजनका सम्बन्ध धर्मसे न जोड़ दिया होता और उसे एक सुखभोगकी वस्तु न बना दिया होता तो हम यह क्रिया भी वैसे ही एकान्तमें सम्पन्न करते जैसे जीवनकी अन्य आवश्यक क्रियाएँ सम्पन्न करते हैं। सच तो यह है कि हिन्दुत्वको उच्चतम संस्कृतिमें भोजनके प्रति यही दृष्टिकोण रखा गया है और अब भी ऐसे हजारों हिन्दू हैं जो किसीके सामने भोजन नहीं करते। मैं बहुतसे सुसंस्कृत पुरुषों और स्त्रियोंके नाम बता सकता हूँ जो भोजन बिलकुल एकान्तमें किया करते थे, किन्तु जिनके मन में किसी भी व्यक्तिके प्रति दुर्भाव नहीं था और वे सबसे अत्यन्त मैत्रीपूर्ण व्यवहार करते थे।

परस्पर विवाह-सम्बन्ध तो और भी कठिन प्रश्न है। यदि भाई और बहन एक-दूसरेसे विवाहका खयालतक किये बिना आपसमें अत्यन्त सौहार्दपूर्वक रह सकते हैं, तो मेरी लड़की प्रत्येक मुसलमानको अपना भाई समझे और प्रत्येक मुसलमान मेरी लड़कीको अपनी बहन समझे इसमें मुझे कोई कठिनाई नहीं दिखाई देती। धर्म और विवाहके सम्बन्धमें मेरे विचार बड़े दृढ़ हैं। हम अपनी भोजन या विवाहकी लालसापर जितना अधिक अंकुश रखेंगे, धार्मिक दृष्टि से हम उतने ही ऊपर उठेंगे। यदि मेरी लड़कीसे विवाह प्रस्ताव कर सकनेके इच्छुक किसी भी युवकके अधिकारका औचित्य मुझे स्वीकार करना पड़े अथवा यही मानना पड़े कि मेरे लिए हर किसी के साथ भोजन करना आवश्यक है तब तो मुझे संसारसे सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाकर रखनेकी कोई आशा ही न रह जायेगी। मेरा दावा है कि मेरा समस्त संसारसे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बना हुआ है। मैंने कभी भी किसी मुसलमान या ईसाईसे झगड़ा नहीं किया है। किन्तु मैंने सालोंतक मुसलमानों या ईसाइयोंके घरोंमें फलोंके अतिरिक्त और कुछ नहीं खाया है। यह निश्चित बात है कि मैं पकाया हुआ भोजन एक थालमें अपने बेटेके साथ भी नहीं खाऊँगा और न जिस पात्रमें उसने मुँह लगाया हो उसे धोये बिना उसमें पानी ही पीऊँगा। किन्तु इन मामलोंमें मैंने जो संयम या निषेध बरता है उसके कारण मुसलमानों या ईसाई मित्रोंसे या अपने बेटोंसे मेरे घनिष्ठ सम्बन्धपर कभी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है।

किन्तु एक साथ खाने-पीने और परस्पर विवाह-सम्बन्ध रखने से ही फूट, झगड़े और इससे भी बदतर चीजें कभी रुक नहीं गई है। पाण्डवों और कौरवोंका साथ बैठकर खाना-पीना भी होता था और उनमें परस्पर विवाह सम्बन्ध[१] भी था, फिर भी वे बिना तनिक भी दुविधाके एक-दूसरेके गले काटनेके लिए टूट पड़े। अंग्रेजों और जर्मनोंके बीचकी कटुता अभीतक समाप्त नहीं हुई है।

सचाई यह है कि साथ बैठकर खाना-पीना और पारस्परिक विवाह-सम्बन्ध करना मंत्री और एकताके लिए आवश्यक नहीं है, यद्यपि वे प्राय: उनके प्रतीक माने जाते हैं। किन्तु उनमें से किसीपर भी आग्रह करनेसे हिन्दू-मुस्लिम एकताके मार्ग-

  1. मूल अंग्रेजोमें 'इण्टरमैरिज' शब्द है जो स्पष्टत: चूक।