३८. पत्र: नौरोजी खम्भाताको
आश्रम, साबरमती
मंगलवार [२३ फरवरी, १९२०][१]
आपका पत्र मिला। जालको उसके नवजोत[२] संस्कारके अवसरपर हम दोनोंके आशीर्वाद।
मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५८००) से।
सौजन्य: तहमिना खम्भाता
३९. हिन्दू-मुस्लिम एकता
श्री कैंडलरने कुछ समय पूर्व मेरे साथ अपनी एक काल्पनिक भेंटका वर्णन किया था और उसके दौरान यह प्रश्न उठाया था कि अगर मैं हिन्दू-मुस्लिम एकताके सम्बन्धमें जो-कुछ कहता हूँ, सच्चे हृदयसे कहता हूँ तो क्या मैं किसी मुसलमानके साथ बैठकर खा-पी लूँगा और किसी मुसलमानको अपनी लड़की ब्याह दूँगा। एक दूसरे रूपमें कुछ मित्रोंने मुझसे फिर यह प्रश्न पूछा है। क्या हिन्दू-मुस्लिम एकताके लिए आपसमें खानपान और विवाह-सम्बन्ध होना आवश्यक है? प्रश्नकर्ता कहते हैं कि यदि ये दोनों बातें आवश्यक है तो सच्ची एकता कभी नहीं आ सकती, क्योंकि करोड़ों सनातनी लोग सहभोजके लिए कभी भी तैयार नहीं होंगे और परस्पर विवाह-सम्बन्धके लिए तैयार होना तो और भी कठिन है।
मैं उन लोगोंमें से हूँ जो जाति-प्रथाको हानिकर नहीं मानते। मूलत: जाति-प्रथा एक अच्छी प्रथा थी और उससे राष्ट्रका बड़ा कल्याण हुआ। मेरे खयालसे यह विचार कि राष्ट्रीय विकासके लिए दोनों मजहबोंके लोगोंका साथ बैठकर खाना-पीना और परस्पर विवाह सम्बन्ध रखना आवश्यक है, एक वहम है जो हमने पाश्चात्य दुनियासे