पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 17.pdf/७०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अतएव इस बागको राष्ट्रको ओरसे खरीदनेके औचित्यपर विचार करना आवश्यक है, विशेषतः इसलिए कि कुछ शिक्षित समझदार लोगोंने भी इसपर आपत्ति की है। और हमारे सामने कानपुर स्मारकका[१] जो उदाहरण है, उसे देखते हुए इस रुखपर कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए। लेकिन आपत्ति उठानेवाले लोगोंके प्रति पूर्ण सम्मानभावके साथ मुझे कहना पड़ता है कि इस बागको न खरीदना राष्ट्र के लिए लज्जाको बात होती। क्या हम उन पाँच सौ या इससे भी अधिक लोगोंको कभी भूल सकते हैं जो नैतिक और कानूनी, दोनों दृष्टियोंसे निरपराध होनेपर भी मार डाले गये थे? अगर उन्होंने जानबूझकर स्वेच्छासे मृत्यु स्वीकार की होती, जिस समय उनपर पचास राइफलोंसे गोलियोंकी बौछार की जा रही थी[२] , उस समय अगर उन्होंने अपनी जगह डटे रहकर उनको झेला होता तो इतिहासमें उनका नाम सन्तों, शूरवीरों और देशभक्तोंके रूपमें लिया जाता। लेकिन जिस रूपमें यह दुर्घटना घटी उस रूपमें भी यह सर्वाधिक राष्ट्रीय महत्त्वकी बात है। वेदना और कष्टोंसे ही राष्ट्र प्रसूत हुआ करते हैं। जो लोग हमारी राजनीतिक स्वतंत्रताको लड़ाईमें बिना किसी अपराध के या दूसरों के अपराधोंके चलते अपने प्राण गँवा बैठे या अन्य कष्ट झेलें, यदि हम उनकी स्मृतिको सम्मानसे सँजोकर नहीं रखते तो हमें एक राष्ट्र माने जानेका कोई अधिकार नहीं है। जब हमारे असहाय देश-भाइयोंका निर्ममतापूर्वक कत्लेआम किया जा रहा था उस समय हम उनकी रक्षा नहीं कर पाये। अगर हम चाहें तो इस अन्यायका बदला लेनेसे इनकार कर सकते हैं। और अगर हम ऐसा करते हैं तो उससे राष्ट्रको कोई क्षति नहीं होगी। लेकिन क्या हम मृत व्यक्तियोंकी स्मृतिको स्थायित्व प्रदान करने और वे अपने-अपने परिवारों में अपने पीछे जिन लोगोंको छोड़ गये हैं उन्हें यह दिखा देनेसे भी इनकार करेंगे--या कर सकते हैं--कि उनके दुःखसे हम भी दुःखी है। ऐसा करने का तरीका होगा एक राष्ट्रीय स्मारक-स्तम्भ खड़ा करके दुनियाको यह बता देना कि इन लोगोंकी मृत्युके रूपमें हममें से प्रत्येकने अपने प्यारे कुटुम्बियोंको ही खोया है। यदि राष्ट्रीय चेतनामें बन्धुत्वको इतनी भावना भी न हो तो मेरे लिए वह कोई अर्थ नहीं रखती। मेरे विचारसे भावी संततियोंको यह बता देना हमारा कर्तव्य है कि सच्ची स्वतन्त्रताकी ओर अग्रसर होते हुए हमें जलियाँवाला बागके कत्लेआम- जैसे अन्यायपूर्ण कार्योकी पुनरावृत्तिके लिए तैयार रहना चाहिए। हमें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे उसको पुनरावृत्ति न हो, हमें ऐसे किसी दुष्काण्डको आमंत्रित भी नहीं करना चाहिए, लेकिन अगर वह आ जाये तो हमें उसका सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। मैं कभी नहीं चाहूँगा कि हम राष्ट्रीय जीवनके इस संघर्ष में जूझनेसे हिचकें। अमृतसर कांग्रेसकी[३] सबसे बड़ी सीख यह थी कि पंजाबके कष्टोंसे राष्ट्र हतोत्साह नहीं हुआ है, बल्कि उसने उन कष्टोंको एक स्वाभाविक

  1. सन् १८५७ के विद्रोहके सम्बन्धमें
  2. जलियाँवाला बागमें पचास सिपाहियोंने जनरल डापरके नेतृत्वमें गोलियों चलाई थी; देखिए "पंजाबके उपद्रवोंके सम्बन्धमें कांग्रेसकी रिपोर्ट", २५-३-१९२०।
  3. यह अधिवेशन सन् १९१९ के दिसम्बर महीने में हुआ था