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पंजाबकी चिट्ठी-१२

उत्तरोत्तर अधिक संख्यामें मेरे पास आती जाती हैं। अपनी इस यात्राके दौरान मुझे यह विश्वास हो गया है और यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि स्त्रियाँ यह सब देखकर हर्षोन्मत हो गयी है कि हम अपने विरोधीके साथ प्रेमपूर्वक, बिना किसी द्वेषके, लड़ सकते हैं, अधिकारियोंको निर्भयतापूर्वक उनके दोष बता सकते हैं और अधिकारियोंको उन्हें सुनना पड़ेगा।

मैं चाहता हूँ कि इससे पाठकगण यह न समझें कि मैं आत्मश्लाघा कर रहा हूँ। मैंने हंटर समितिको अपनी अपूर्णताके सम्बन्धमें जो उत्तर दिया है[१] वह मात्र मेरी विनयका सूचक नहीं था। यह उत्तर अक्षरश: सही था। मैंने कहा था कि मैं सम्पूर्ण सत्याग्रही होनेका दावा नहीं कर सकता। सम्पूर्ण सत्याग्रही होता तो इस वाक्यको लिखने की भी मुझे जरूरत न रहती और इस बातका भय भी नहीं रहता कि कहीं मुझपर आत्मश्लाघाका आरोप न लगाया जाये। मैंने कभी किसी समय भी अपनी प्रशंसा नहीं की है, यह दावा करने का साहस भी मैं नहीं कर सकता। लेकिन पाठकोंसे उनके मनमें सत्य के प्रति, स्वदेशीके प्रति पूर्ण दिलचस्पी पैदा करने की खातिर मैं ज्ञानपूर्वक तथा सावधानी बरतते हुए इतना कहने की अनुमति लेता हूँ कि पंजाबकी स्त्रियोंका यह अलौकिक भाव मेरे व्यक्ति-रूपके प्रति नहीं है, वरन् उन्हें मुझमें जिस सत्यके दर्शन हुए हैं तथा मेरे द्वारा उन्हें स्वदेशीके जिस सीधे-सादे स्वरूपकी प्रतीति हुई है उसीसे वे अब मेरे प्रति आकर्षित हो गई है। पुरुषोंका प्रेम भी कुछ कम नहीं है, लेकिन इस प्रेमकी निर्मलताके सम्बन्धमें मुझे सन्देह है। उनमें से कुछ तो मेरे प्रति इसलिए प्रेम-भाव रखते हैं कि मैं सरकारके विरुद्ध लड़नेवाला हूँ, कितने ही लोग यह मानते हैं कि यद्यपि मैं कुछ कहता नहीं हूँ तथापि द्वेष-भावसे खूब भरा हुआ हूँ, अलबत्ता इस भावको कार्यकुशल होने के कारण ही छुपाये रखता हूँ। कुछेक लोगोंकी यह मान्यता है कि मुझमें संघर्ष करने की शक्ति तो काफी है, लेकिन बुद्धिका अभाव होनेके कारण मैं मूर्ख हूँ; तो भी मेरी शक्तिका उपयोग करना और उसकी हदतक मेरे प्रति पर्याप्त प्रेम-भाव दिखाना अनुचित नहीं है। बाकीके लोग स्वयं सत्य और स्वदेशीके प्रेमी होने के कारण तथा यह मानकर कि इन दोनों विषयोंके सम्बन्ध में उनकी अपेक्षा अधिक अनुभव रखता हूँ, मेरे प्रति निर्मल प्रेम रखते हैं। इस तरह अपने इस सन्देहके कारण कि पुरुषोंका भाव मिश्रित प्रकारका है जब अनेक व्यक्ति मेरे चारों ओर घिर जाते हैं तब मैं उलझनमें पड़ जाता हूँ, घबरा जाता हूँ; और मुझे यह भय बना रहता है कि कहीं वे और में दोनों मिलकर कोई अनर्थ न कर बैठे। लेकिन स्त्रियोंके बारे में तो मेरे मनमें, स्वप्नमें भी यह भाव उत्पन्न नहीं होता। वे मुझसे एक ही भावनासे मिलना चाहती हैं, इसलिए हजारोंकी संख्यामें उनकी उपस्थिति मुझे शान्ति प्रदान करती है, सत्याग्रह और स्वदेशीके प्रति मेरी श्रद्धामें वृद्धि कर, मेरी दृढ़ताको और भी दृढ़ करते हुए, मुझे और भी अधिक उत्साहित करती हैं तथा अपने कार्य में मुझे और भी अधिक प्रवृत्त करती हैं। यदि में पुरुषोंमें भी स्त्रियोंके जैसा ही निर्मल भाव स्फुरित कर सकूँ तो एक वर्षके भीतर ही हिन्दुस्तान कितना

  1. ९ जनवरी, १९२० को अहमदायादमें इंटर-समितिके सम्मुख गवाही देते समय।