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परिशिष्ट

करना ठीक नहीं होगा। फौजी कानून हटाने से पूर्व प्रकट उपद्रव बन्द हो गये थे, यह सही है किन्तु सम्भव है कि ऐसा फौजी कानूनके कारण हुआ हो और उसको जल्दी हटाने से शायद पुनः उनका सिलसिला शुरू हो जाता। घटनाओंका सिंहावलोकन करें तो कहा जा सकता है कि उसका और जल्दी हटाया जाना सम्भव था किन्तु यदि जिस तरह कुछ मामलोंमें फौजी कानून अमल में लाया गया उसकी शिकायतका मौका न मिलता तो महामहिमकी सरकारको इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि इस बातपर जितना जोर दिया गया है उतना न दिया जाता। परन्तु उत्तरदायी अधिकारियोंने जो फैसला किया उसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि भविष्यकी कल्पनापर निर्भर रहने के सिवा उनके पास कोई अन्य चारा नहीं था।

५. १९१९ के अध्यादेश ४ का औचित्य जो फौजी कानून आयोगोंको ३० मार्च या उसके बाद किये गये किसी भी अपराधकी जाँचका अधिकार देता था:—इसमें विवादका मुद्दा इस अध्यादेशकी वैधता नहीं है; वह प्रश्न प्रीवी कौंसिलकी न्याय समितिने हाल में निपटा दिया है। मार्शल लॉको घोषित करनेका तात्कालिक कारण तथा औचित्य यही था कि प्रकट रूपसे किये गये हिंसात्मक कार्योंके अभियुक्तोंको विशेष सैनिक न्यायाधिकरणों और अदालती कार्रवाईके अधिकारक्षेत्र में लाया जा सके। इस कानूनको पीछे की तारीख से लागू करना वैधानिक रूपसे सम्भव था तो फिर ऐसा करनेके औचित्यपर भी सन्देहका कोई संगत कारण कैसे हो सकता है? मूल अध्यादेशके द्वारा जिसने लाहौर और अमृतसर जिलोंमें फौजी कानून आयोग स्थापित किये थे, उन आयोगोंको १३ अप्रैल या उसके बाद किये अपराधोंकी जाँच करनेका अधिकार दिया गया था। यदि यह तारीख अपरिवर्तित रही होती तो ऐसे व्यक्तियोंके खिलाफ, जिनपर १० अप्रैलको अमृतसरमें की गई हत्याओं, आगजनी और सम्पत्ति विनाशमें सक्रिय रूपसे भाग लेने या १०, ११ व १२ अप्रैलको लाहौरमें दंगोंमें शरीक होने तथा १२ तारीखको कसूर में की गई हत्याओंमें शामिल होनेका अभियोग लगाया गया था, दायर मुकदमोंकी सुनवाई आयोग नहीं कर सकता था। और यदि भारत सरकारने हाथमें कानूनी ताकत सुलभ रहते हुए भी इस असंगतिको सही करनेकी इस हदतक उपेक्षा की होती तो सामान्य स्थितिको शीघ्र पुनः स्थापित करनेके स्पष्ट और जरूरी कदम उठानेमें उससे चूक हो गई होती। लेकिन जिन लोगोंका अपराध मात्र इतना ही था कि उन्होंने अखबारोंमें अमुक लेख लिखा था या अमुक भाषण दिया—ये लेख और भाषण उपद्रवोंके तात्कालिक और प्रत्यक्ष कारण तो नहीं कहे जा सकते—उनके सम्बन्धमें मुकदमोंकी सुनवाईकी फौजी कानूनवाली पद्धतिका प्रयोग करनेके लिए इस अध्यादेश द्वारा दी गई सत्ताका उपयोग भिन्न प्रकारका है। इंटर समितिके अधिकांश सदस्योंने इस नीतिको 'दुर्भाग्यपूर्ण' और 'अदूरदर्शितापूर्ण' कहा है, उनकी यह आलोचना अतिरंजित नहीं है।

१९१९ के अध्यादेश ४ के अन्तर्गत किये गये कामोंको, जिन्हें स्वीकार करना असम्भव है, देखते हुए महामहिमकी सरकार इस सम्बन्धमें जरा भी सन्देह नहीं कर सकती कि स्वयं अध्यादेशका दायरा आवश्यकतासे अधिक विस्तृत था और भविष्यमें