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परिशिष्ट

अनिवार्य था। फौजी कानूनी अदालतों द्वारा दी गई सजाओंके बारेमें समितिका निष्कर्ष है, कि आम तौरपर लोग उन्हें अनावश्यक रूपसे कठोर मानते थे; परन्तु सरकार द्वारा सजाओंको कम कर देनेसे यह भावना दूर हो गई। उसका कहना है कि छोटे-छोटे अपराधियोंपर गम्भीर अपराधोंका अभियोग नहीं लगाया जाना चाहिए था। उस हालत में सजाओं में बहुत कमी करने की जरूरत ही न पड़ती। समितिको दुःख है कि डाक्टर किचलू और डा॰ सत्यपाल के जैसे कुछ मामले साधारण अदालतोंमें नहीं चलाये गये। भारत सरकारने इन विचारोंको स्वीकार किया है। पंजाब से बाहरके वकीलकी नियुक्तिका निषेध करनेवाले फौजी आदेशकी अविवेकपूर्ण कहकर आलोचना की गई है और भारत सरकारके इस कामकी प्रशंसा की गई है कि उसने इस आदेशपर मोहर नहीं लगाई।

३८. समिति काफी विस्तारसे पंजाबमें फौजी कमांडरों द्वारा जारी किये गये फौजी कानूनके आदेशोंके स्वरूपकी जाँच करती है। बहुमतका निष्कर्ष है कि जारी किये गये कुछ आदेश गैरकानूनी थे और उनसे कोई उद्देश्य भी सिद्ध नहीं हुआ। जनरल डायर द्वारा दिये गये पेटके बल चलने के आदेश (जिसे लेफ्टिनेंट गवर्नरने मालूम होते ही अस्वीकार कर दिया था) जनरल कैम्बेलके 'सलामी' के आदेश और कर्नल जॉन्सन द्वारा लाहौरके विद्यार्थियोंके लिए जारी किये गये 'हाजरी' के आदेशकी समितिने तीव्र आलोचना की है। भारत सरकार मानती है कि समितिने अपनी नापसन्दगीके साथ जो दृष्टान्त दिये हैं, उनमें उल्लिखित अधिकारियोंका कार्य न्यायसंगत नहीं था और कुछ मामलोंमें अनावश्यक रूपसे लोगोंका अपमान किया गया, जिससे एक दुर्भावना पैदा हुई और उसके कारण प्रशासनको गम्भीर उलझनका सामना करना पड़ा। किलेका अनुशासन (फोर्ट डिसिप्लिन) भंग करने के अपराधमें छह व्यक्तियोंको—जिनपर कुमारी शेरवुडकी हत्या करनेका सन्देह था—जहाँ उक्त महिलापर हमला हुआ था वहाँ कोड़े लगाये जानेकी तीव्र आलोचना की गई है और भारत सरकार मानती है कि इस मामले में की गई कार्रवाई अत्यन्त अनुचित थी। समितिने सार्वजनिक रूपसे कोड़े लगवानेकी सजाओंपर विचार करते समय कहा है कि फौजी कानूनी प्रशासन में सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाने की सजा नहीं देनी चाहिए। इसके अलावा उसकी रायमें कोड़े लगाने की सजाएँ बहुत अधिक लोगोंको दी गईं और यद्यपि यह तरीका फौजी कानून विनियमोंके छोटे-छोटे अतिक्रमणोंके तुरन्त निपटारेके लिए शायद सबसे अधिक प्रभावशाली और सुविधाजनक माना गया है फिर भी क्षेत्र अधिकारियोंको इस तरहकी सजाएँ देनेके विवेकाधिकारपर नियन्त्रण रखना चाहिए था। किन्तु उसका कहना है कि कोड़े क्रूरता पूर्वक लगाने के कारण बहुतसे व्यक्ति अधमरे हो गये, इस आरोपका कोई आधार नहीं है। भारत सरकार समितिके इन निष्कर्षोंको पूरी तरह स्वीकार करती है। इसके बाद समिति समरी अदालतों द्वारा दी गई कुछ सजाओंका उल्लेख करती है जो कानून सम्मत नहीं थीं। यद्यपि ये सजाएँ अनुपयुक्त थीं, फिर भी वे सामान्यतया गम्भीर नहीं थीं और इनकी तजवीज़ बहुधा अधिक कठोर कानूनी दण्डके स्थानपर की गई थी। फिर भी भारत सरकार इस तरहकी अजीब सजाओंको ठीक नहीं मानती और भविष्य में ऐसी सजाएँ देनेपर रोक लगानेके लिए उसने आवश्यक कदम उठाये हैं।