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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इसके बाद समिति रौलट विधेयकके विरुद्ध चलाये गये आन्दोलनपर विचार करती है। उसका विचार है कि यह आंदोलन चाहे मुख्य रूपमें न सही किन्तु बहुत हदतक सरकारके विरुद्ध उस भावनाको जगानेके लिए जिम्मेदार था जिसके कारण इतने गम्भीर उपद्रव भड़के। उसने विधेयककी व्यवस्थाओंसे सम्बन्धित ऐसी अनेक झूठी अफवाहोंको उद्धृत किया है जिन्होंने जनभावनाको भड़काया। इसके बाद समितिने २४ फरवरीको श्री गांधी द्वारा प्रारम्भ किये गये सत्याग्रह आन्दोलनके इतिहास और उसकी प्रगतिपर प्रकाश डाला है। इस आन्दोलनके सभी पहलुओंपर सावधानीसे विचार करनेपर समितिको लगता है कि इससे बहुतसे लोगों में कानून उल्लंघन के प्रति सहानुभूति और आकर्षण पैदा हुआ है और कानून पालन करनेवाली सहज प्रवृत्तियाँ, जो समाजको हिंसक उपद्रवोंसे दूर रखती हैं, ऐसे समय जब कि उनकी पूरी शक्तिकी आवश्यकता थी, दब गई। भारतमें नरम विचारोंवाले प्रमुख नेताओंने प्रारम्भसे ही सत्याग्रह आन्दोलनकी इसलिए निन्दा की कि इससे व्यवस्था और शान्तिभंग होनेकी सम्भावना थी और बाद में इसके संघटनकर्त्ताने स्वयं स्वीकार किया कि जनान्दोलनको प्रारम्भ करते समय उन्होंने दुष्प्रवृत्तियोंकी गम्भीरताको कम आँका था। समितिका स्पष्ट निर्णय है कि पंजाबमें भरती अभियान तथा युद्ध ऋणके लिए चन्दा उगाहने की कार्रवाई अशान्ति नहीं फैली। वह यह कहकर अपना वक्तव्य समाप्त करती है कि पंजाबमें होनेवाले विस्फोटोंका कारण भारतमें ब्रिटिश सरकारका तख्ता बलपूर्वक पलट देनेका पूर्व नियोजित षड्यन्त्र था, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। परन्तु सरकारके लिए विस्फोटको एक निश्चित संगठनका परिणाम न मानना कठिन और सम्भवतः असुरक्षापूर्ण होता। ब्रिटिश सरकारका तख्ता पलटने के लिए बनाई गई गहरी नींववाली योजनाके विद्यमान होनेके अतिरिक्त यह बात भी है कि इस आन्दोलनकी शुरुआत दंगोंसे हुई, इन दंगोंने बगावतका रूप ले लिया और सम्भव था कि यह शीघ्र ही बढ़कर क्रान्तिमें परिवर्तन हो जाते।

३१. अपनी रिपोर्टके परिचयात्मक अध्यायमें अल्पमत कहता है कि उपद्रवोंके कारणोंके सम्बन्धमें वह बहुमतके निष्कर्षोंसे काफी हदतक सहमत है। बहुमतके सिर्फ इस निष्कर्षसे वह सहमत नहीं कि पंजाबके अधिकारियोंका ऐसा मानना उचित था कि विस्फोट एक निश्चित संगठनके परिणामस्वरूप हुआ। वह इस कथनसे सहमत होनेमें असमर्थ है कि दंगे बगावतकी तरहके थे और ये घटनाएँ बढ़कर क्रान्तिमें परिवर्तित हो सकती थीं। सत्याग्रहका आन्दोलन और उसकी प्रशाखा—कानूनोंकी सविनय अवज्ञा—का बहुमतने जो मूल्यांकन किया है उससे वह पूरी तरह सहमत है। वह उपद्रवोंके वास्तविक स्वरूपपर, जिसमें उनके कारण भी शामिल हैं, अपनी रिपोर्टके दूसरे अध्यायमें विस्तारसे विचार करता है। यहाँपर वह १९१९के प्रारम्भमें जो परिस्थितियाँ विद्यमान थीं, युद्ध प्रयत्नोंसे भारतपर जो भार पड़ा था, महँगाईकी जो कठिनाइयाँ थीं, युद्धके कारण उत्पन्न जो असुविधाएँ और लगाए गए प्रतिबन्ध, युद्ध-विरामसे दुःख-निवारणकी जो उम्मीद जागी थी, और बादमें अकाल व महामारीसे जो निराशा पैदा हुई थी, पहलेसे अधिक सख्त आयकर अधिनियम, यह विश्वास कि सुधार योजनाके सम्बन्धमें भारत