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परिशिष्ट


२९. अध्याय ८में रेलवे तथा तार प्रणालीपर किये गये अनवरत और विस्तृत आक्रमणोंका वर्णन है। ये हमले १० अप्रैलसे लेकर लगभग महीनेके अन्ततक जारी रहे। तार विभागकी एक रिपोर्टके अनुसार तार ५५ बार काटे गये या उनमें अन्य कोई गड़बड़ी पैदा की गई। इसके अलावा रेलवेके टेलीग्राफोंपर अनेक हमले हुए। पंजाब सरकारके वक्तव्यके अनुसार गृह-सदस्य (होम मेम्बर) ने पिछले सितम्बर में परिषद्की बैठक में इस प्रकारके हमलोंकी कुल संख्या १३२ बताई थी। समितिका विचार है कि संचार साधनोंपर हमलोंका कारण आंशिक रूपसे सरकार-विरोधी भावना और आंशिक रूपसे फौजी कार्रवाईको रोकनेकी इच्छा थी। उसने इस बातका भी उल्लेख किया कि हड़ताल करनेके लिए रेलवे कर्मचारियोंको प्रोत्साहित करनेके लगातार प्रयत्न किये गये। ऐसे नाजुक अवसरपर कर्मचारियोंके कुछ वर्गोंमें व्याप्त अशान्तिके कारण सरकार अत्यधिक चिन्ताग्रस्त थी।

फौजी कानून लागू करने और जारी रखनेके अधिकार क्षेत्र से सम्बन्धित प्रश्नसे इसका घनिष्ठ सम्बन्ध होनेके कारण ही इस अध्यायका महत्त्व है। रेलवे और टेलीग्राफके तारोंके अवरोधोंके आँकड़ोंका महत्त्व रिपोर्टके साथ संलग्न नक्शोंमें दृढ़ताके साथ पूरी तरह सिद्ध किया गया है। ये नक्शे उस विस्तृत क्षेत्रको सूचित करते हैं जहाँ इस तरहके अपराध किये गये और इस सूचनासे कार्यके पूर्वनियोजित होनेका सन्देह पैदा होता है।

३०. अध्याय ९ में समिति उपद्रवोंके कारणपर विचार करती है। उसका कहना है कि पंजाबमें आम और विस्तृत उपद्रवोंका मूल जनतामें—विशेषकर बड़े नगरोंके लोगोंमें—सामान्य तौरपर फैले संक्षोभ और असन्तोषको समझना चाहिए। हालके वर्षोंमें होमरूल आन्दोलनने राजनीतिक आन्दोलनों में जो रुचि बढ़ा दी थी, उसे आत्मनिर्णयके नये सिद्धान्तसे बड़ा बल मिला। इस बीच युद्धके चरम सीमापर पहुँच जानेके कारण भारत सुरक्षा अधिनियम (डिफेंस ऑफ इंडिया ऐक्ट) के अन्तर्गत लगाये गये प्रतिबन्ध और भी जरूरी होते जा रहे थे। इन प्रतिबन्धोंने यूरोपकी अपेक्षा भारतके सामान्य नागरिक दैनिक जीवनपर कम प्रभाव डाला; किन्तु राजनीतिक आन्दोलनपर इनका लगाया जाना जरूरी होनेपर भी विशेषकर शिक्षितवर्ग के लिए ये इस दृष्टिसे क्षोभकारक सिद्ध हुए कि उस समय भारतका राजनीतिक भविष्य विचाराधीन था। इस बीच साम्राज्य द्वारा फौजमें रंगरूट भरतीके लिये की गई माँगको पंजाब अपने हिस्सेसे भी ज्यादा पूरी कर रहा था। यह मुख्यरूप से देहाती जिलोंसे हो रही थी। इसलिए स्थानीय सरकार उन्हें सरकार विरोधी ऐसे किसी भी आन्दोलनसे बचाना जरूरी समझती थी जिससे भरतीके काममें बाधा पड़नेकी सम्भावना हो। नवम्बर १९१८ में युद्ध-विराम हो जानेपर शिक्षित वर्ग में बहुत आशा बढ़ी कि युद्धमें भारत द्वारा की गई सेवाओंको तुरन्त मान्यता दी जायेगी। परन्तु ये आशाएँ तुरन्त पूरी नहीं की गई और महँगाई, गरीबी, खाद्य पदार्थ सम्बन्धी प्रतिबन्ध और शान्ति-समझौते से उत्पन्न चिन्ताएँ—विशेषकर उसका टर्कीपर जो प्रभाव पड़ा—इन सब परिस्थितियोंने मिलकर निराशा उत्पन्न कर दी।