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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पहनकर सुन्दर दीखनेका प्रयत्न हरगिज नहीं कर सकते। ब्रह्मचारीको यदि अपना बाहरी स्वरूप दिखाना है, तो सिवा ईश्वरके और किसीको नहीं दिखाना है। और ईश्वर हमें नंगी हालत में भी देखता है। तो फिर अच्छे कपड़े पहनकर हमें सुन्दर दीखने का क्यों प्रयत्न करना चाहिए? असली रूप तो अपने गुणोंसे ही झलकता है। गुणवान होकर अपनी छाप डालनी चाहिए, रूपवान होकर नहीं। कपड़े सिर्फ शरीरको ढकनेके लिए ही पहने जाने जाहिए; और मोटी खादीसे शरीर उत्तमसेक्षउत्तम ढंगसे ढक सकता है। बड़े यदि खुद खादी के कपड़े न पहन सकते हों, तो भी उन्हें बच्चोंको तो खादी ही पहनने की आदत डलवानी चाहिए। जो माँ यह मानकर खुश होती है कि बच्चोंको अच्छे-अच्छे कपड़े पहनानेसे वे सुन्दर दीखते हैं, वह मां मूर्ख है। अच्छे कपड़े से इतना ज्यादा रूप क्या निखरता है? और निखरता भी हो तो उससे फायदा क्या? मेरी लड़कीका रूप देखकर ही कोई उससे शादी करने आये तो में उसे धिक्कार कर निकाल दूँगा। जो मेरी लड़कीके गुण देखकर शादी करने आयेगा, उसीसे में उसकी शादी करूँगा। यदि सुन्दर दिखाई देना है तो तुम्हें भड़कीले कपड़े नहीं पहनने चाहिए, बल्कि अपने गुणोंको बढ़ाना चाहिए। यदि तुम सद्गुणी बनोगे तो जरूर सुन्दर दिखोगे और जहाँ जाओगे वहीं तुम्हारा मान होगा।

अब मुझे नहीं लगता कि मेरे कहने लायक कोई बात रह गई है। मुझे जो- कुछ तुमसे कहना था वह मैंने कह दिया। जो कहा है वह अमूल्य है। मैंने तुमसे जो कुछ कहा है वह तुम न समझे हो तो बड़ोंसे या शिक्षकोंसे समझ लेना; क्योंकि मैंने जो कुछ कहा है, छोटे बच्चोंको भी अच्छी तरह समझकर उसे ध्यान में रखना है। तुम सब उसपर खूब विचार करो, विचार करके जितना हो सके उसपर अमल करो और मुझे ऐसी सुविधा दो कि में निर्भय होकर लड़के-लड़कियोंको साथ-साथ पढ़ानेका प्रयोग सफल बना सकूँ।

[गुजराती से]
साबरमती, शरद् अंक १९२२ : (एस॰ एन॰ ७१९५) से।