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वक्तव्य : अखबारोंको नई कौंसिलोंपर

हम उन्हें अपने में पैदा नहीं करेंगे और राष्ट्रमें उन्हें नहीं फैलायेंगे? क्या ऐसा प्रयत्न करना मुनासिब नहीं? इतने बड़े उद्देश्यको पूरा करनेके लिए कोई भी त्याग क्या बहुत बड़ा है?

[अंग्रेजी से]
यंग इंडिया, ३०-६-१९२०
 

२५१. वक्तव्य : अखबारोंकी नई कौंसिलोंपर

यह कहने की जरूरत नहीं है कि [सुधार कानूनके अन्तर्गत गठित] नई कौंसिलोंके[१] बहिष्कारके प्रश्नपर में लाला लाजपतराय से पूरी तरह सहमत हूँ। मेरे लिए तो उनका सुझाव असहयोग आन्दोलनके ही एक कदम-जैसा है, और चूँकि में पंजाबके प्रश्नके सम्बन्ध में भी उतनी ही उत्कटता के साथ विचार करता हूँ जितना कि खिलाफत के सवालपुर; इसलिए लाला लाजपतराय के सुझावका में और भी स्वागत करता हूँ। मैं देखता हूँ कि ऐसा सुझाव एकसे अधिक क्षेत्रोंमें दिया गया है कि चुनावकी प्रक्रिया पूरी हो जानेके बाद सुधारोंके विरुद्ध असहयोग शुरू किया जाना चाहिए। मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि स्पष्ट ही इन कौंसिलोंकी कार्यवाहियों में हिस्सा लेनेका हमारा इरादा ही नहीं है। तो फिर चुनावके ढकोसले में और खर्च में पड़ना भूल है। इसके अलावा लोगों के बीच शिक्षा सम्बन्धी बहुत-सा काम करना है। यदि मेरा वश चलता तो देशके प्रबुद्ध लोगों को अपनी शक्ति चुनावोंके चक्कर में नष्ट न करने देता। यदि हम चुनाव लड़ें और बादमें इस्तीफा दें तो जनता असहयोगकी खूबी नहीं समझ पायेगी। परन्तु यदि मतदाताओंसे यह कहा जाये कि वे किसीको भी वोट न दें और यदि कोई उनका वोट माँगने आये तो उससे सब मतदाता एक स्वरसे यही कहें कि जबतक पंजाबका सवाल और खिलाफतका सवाल सन्तोषजनक ढंगसे हल नहीं हो जाता[२] तबतक यदि आप चुनाव लड़ते हैं तो आप हमारे प्रतिनिधि नहीं माने जायेंगे। मतदाताओं की यही अच्छी शिक्षा होगी। मैं आशा करता हूँ कि लाला लाजपतराय नई कौंसिलोंके बहिष्कार की बात कहकर ही अपना काम समाप्त हुआ समझना नहीं चाहते।[३] यदि हम अपनेको एक स्वाभिमानी राष्ट्र कहलवाना चाहते हैं तो आवश्यकतानुसार असहयोगकी चारों मंजिलोंसे गुजरे बिना हमारा काम नहीं चलेगा, यह बात

  1. १९१९ के सुधार कानूनके अन्तर्गत अक्तूबर १९२० तक इन नई कौंसिलोंके लिए उम्मीदवारोंके नाम घोषित होनेको थे। लाला लाजपतरायने अपने उर्दू समाचारपत्र बंदेमातरम् में घोषणा की थी कि वे चुनाव में खड़े नहीं होंगे।
  2. जब नवम्बर १९२० में चुनाव हुए तो ६३७ में से ६ मामलों में उम्मीदवारके अभाव में चुनाव असम्भव रहा।
  3. लाला लाजपतराय पहले गांधीजीके असहयोग कार्यक्रमसे सहमत नहीं थे; परन्तु दिसम्बर १९२० में, नागपुरके कांग्रेस अधिवेशनमें उन्होंने अन्य बहुत से लोगोंकी तरह गांधीजीका ही रास्ता अपना लिया।