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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

फिर भी इतना प्रभावशाली उपाय दूसरा कोई नहीं है। यदि सोच-विचारकर सावधानी से इसका प्रयोग किया जाये तो इससे किसी प्रकारके बुरे नतीजेकी सम्भावना ही नहीं है। और इसकी तीव्रता लोगोंके त्यागकी ही क्षमतापर पूर्णतः निर्भर करेगी।

मुख्य बात तो असहयोगका वातावरण तैयार करना है। प्रत्येक समझदार प्रजाजनका निस्सन्देह यह अधिकार और कर्त्तव्य है कि वह कहे कि "हम आपके अन्यायमें आपको सहयोग नहीं देनेवाले हैं।" यदि हममें लाचारी और आत्मविश्वासकी कमी न होती तो हम निस्सन्देह इस साफ उपायको ग्रहण करते और उसका अत्यन्त प्रभावशाली उपयोग करते। अन्ततः तानाशाही सरकार भी शासितोंकी इच्छा के बिना नहीं बनी रह सकती और वह इच्छा बहुधा तानाशाह जबरदस्ती हासिल करता है। जैसे ही प्रजा तानाशाही ताकतसे डरना बन्द कर देती हैं वैसे ही उसकी ताकत खत्म हो जाती है। परन्तु ब्रिटिश सरकार कहीं भी पूरी तरह या मुख्यरूपसे ताकतके बलपर नहीं खड़ी है। वह शासितोंकी सद्भावना पानेकी पूरी-पूरी कोशिश करती है। परन्तु शासितोंकी स्वीकृति पानेके लिए दबाव डालने में वह गलत उपाय अपनानेसे नहीं झिझकती। "ईमानदारी ही सबसे अच्छी नीति है" वह इस विचारसे दूर नहीं गई है। इसलिए वह अपनी इच्छा में आपकी स्वीकृति पानके लिए आपको रिश्वतके तौरपर खिताब, तमगे व फीते देती है, नौकरी देती है; अपनी श्रेष्ठ आर्थिक स्थिति और क्षमता के चलते वह अपने कर्मचारियोंके लिए अमीर बननेके नये क्षेत्र खोलती है और अन्तमें जब ये उपाय विफल हो जाते हैं तो ताकतका सहारा लेती है। यही सर माइकेल ओ'डायरने किया और यही हरएक ब्रिटिश प्रशासक यदि जरूरी समझेगा तो जरूर करेगा। तो यदि हम लोभी न हों, यदि हम खिताबों, तमगों और अवैतनिक सम्माननीय पदोंके पीछे न दौड़ें, जिनसे देशका कुछ भी भला नहीं होता, तो आधी लड़ाई फतह हो जायेगी।

मुझे सलाह देनेवाले यह बताते नहीं थकते कि यदि टर्की शान्ति शर्तों में परिवर्तन[१] भी किया गया तो ऐसा असहयोगके कारण नहीं होगा। में उनसे यह कहना चाहता हूँ कि असहयोगका उद्देश्य शर्तोंको बदलवानेका ही नहीं है, उससे कहीं अधिक ऊँचा है। यदि में ब्रिटेनको शर्तोंमें परिवर्तन करनेके लिए बाध्य नहीं कर सकता तो कमसे कम मुझे एक ऐसी सरकारको मदद देना जरूर बन्द कर देना चाहिए जो अपहरण में साझेदार बनती है। मुझे इंग्लैंड सरकारमें इतना विश्वास है कि में जानता हूँ कि उस समय इंग्लैंड अपने मौजूदा निन्दित मन्त्रियोंको निकाल देगा और उन जगह दूसरे मन्त्री नियुक्त करेगा जो जाग्रत प्रबुद्ध भारतकी सलाहसे वर्तमान संधिकी शर्तोंको खत्म कर देंगे, और ऐसी शर्तोंका मसौदा तैयार करेंगे जो ब्रिटेन और टर्की, दोनोंके लिए सम्मानजनक होगा और भारतको भी स्वीकार्य होगा।

परन्तु मैं अपने आलोचकोंको कहते सुनता हूँ : "भारत के पास उद्देश्य बल नहीं है और इतने महान् लक्ष्यको प्राप्त करने के लिए त्यागकी क्षमता नहीं है। वे कुछ अंशों में सही हैं। भारतमें अभी ये गुण नहीं हैं; परन्तु हममें वे गुण नहीं हैं तो क्या

  1. २७ जून, १९२० को टर्कीने सन्धिके अपने प्रस्ताव सामने रखे थे।