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पुरानी पूँजी

पानी बहता रहता है—वह मेरा नहीं है यह सोचकर लापरवाह रहता हूँ। रेलगाड़ी में भी यही दृश्य देखने में आता है। जैसे-तैसे अपने बैठनेकी जगह बनाकर यथासम्भव दूसरोंको बैठनेसे रोकता हूँ। दूसरोंको दिक्कत महसूस तो नहीं होती यह सोचे बिना बीड़ी पीना शुरू कर देता हूँ। केले तथा गन्नेके छिलके में पड़ोसीके [घरके] सामने फेंकने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता। नलपर पानी भरने जाता हूँ तो दूसरोंकी परवाह नहीं करता। स्वार्थके ऐसे अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं।

जहाँ इतना अधिक स्वार्थमय दृष्टिकोण हो वहाँ आत्म-त्यागकी आशा कैसे की जा सकती है? [क्या] व्यापारी देशकी खातिर अपना व्यापार ईमानदारीसे चलाते हैं? लाभकी एक पाई भी छोड़ते हैं? देशके निमित्त रुईके सट्टेको बन्द करते हैं? [क्या वे अपने नगरसे] बाहर बेचने में दूधसे होनेवाले अधिक लाभका विचार छोड़कर देशके हित में उसके मूल्योंको कम रखनेका प्रयत्न करते हैं? छोड़नी पड़े तो देशके लिए कितने लोग नौकरी छोड़ते हैं? देशकी खातिर भोगोंको कम करके, सादगीको अपना कर बचत के पैसोंका देशहित में उपयोग कौन करता है? देशके अर्थ जेल जाना पड़े तो कितने लोग जानको तैयार हैं?

हमारी अप्रामाणिकता तो हमारी नजरके सामन ही घूम रही है। व्यापारमें ईमानदारी से कदापि काम नहीं चल सकता, ऐसा हम मानते हैं। जिन्हें अवसर मिलता है वे घूस लेने से नहीं चूकते। रेलवे विभागमें तो हद दर्जेंकी अप्रामाणिकता दिखाई देती है। रेलवेके सिपाहीको, टिकट बाबूको, गार्डको रिश्वत देनेपर ही काम होता है। टिकट प्राप्त करनेतक में हमें या तो बेईमानीसे काम लेना पड़ता है अथवा उसकी ओरसे आँखें तो मूंदनी ही पड़ती हैं। रेलके सभी पार्सलों में नहीं बल्कि जिन्हें सहज ही खोलकर देखा जा सकता है ऐसे पार्सलोंमें से तो अवश्य ही कुछ-न-कुछ माल गायब मिलेगा।

हममें जो अहंकार है वह भी अंग्रेजोंकी अपेक्षा कदाचित् कुछ ही कम हो। इसका अनुभव प्रतिक्षण होता रहता है। सार्वजनिक आयोजनों और सब कार्योंमें हम जैसे नहीं हैं अपनेको वैसा दिखानेका प्रयत्न करते हैं।

हमारी कायरता तो हमारा विशेष गुण है। असहकारके अन्तर्गत खून-खराबी कोई नहीं करना चाहता, फिर भी हम खून-खराबी हो न जाये इस भयसे कुछ करना ही नहीं चाहते। सरकारके शस्त्र बलसे हम इतने भयभीत हैं कि कोई कदम उठानेकी हमारी हिम्मत ही नहीं होती। इसीसे हम जहाँ-तहाँ अत्याचारको सहन कर रहे हैं और लुटेरे हमें दिन-दहाड़े लूटकर चले जाते हैं।

अपने अहंकारके सम्बन्धमें तो में क्या लिखूँ? प्रत्यक क्षेत्रमें अहंकार बढ़ रहा है। जहाँ निर्बलता होती है वहाँ दम्भ रहता ही है। और फिर जहाँ लोग ईमानदार बनना चाहते हैं, मगर बन नहीं पाते वहाँ तो दम्भ बढ़ता ही है, क्योंकि ईमानदार न होनेपर भी वैसा दिखाने के लालचवश हम अनीति में ही वृद्धि करते चलते हैं। दम्भ हमारे धर्म में भी पूरी तरह से प्रवेश कर चुका है; यहाँतक कि तिलक, माला आदि हमारी पवित्रताकी निशानी होनेके बदले अपवित्रताके सूचक बन गये हैं।