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२४५. स्मरणांजलि

आषाढ़ सुदी ११, १९७६ [२६ जून, १९२०]

स्वर्गीय भाई व्रजलालकी मृत्युके सम्बन्धमें लिखना मुझे मुश्किल लगता है। अभी तक मैं उनकी आकृतिको भूल नहीं सका हूँ। मेरा मोह अभी गया नहीं है, इसलिए तटस्थ भाव से [कुछ] लिखना आसान नहीं है। जिस तरहसे उनकी मृत्यु हुई है उससे मुझे उनसे ईर्ष्या होती है। उन्हें तो मैं सौभाग्यशाली ही समझता हूँ। जिन्हें एक पल भी किसीसे सेवा नहीं करवानी पड़ी और जो दूसरोंकी सेवा करते-करते ही मर गये उनसे अधिक अच्छी मृत्युकी कल्पना कैसे की जा सकती है? जो ईश-स्मरण करते-करते स्वस्थ चित्तसे मर सकता है उसे हम पुण्यात्मा मानते हैं। भाई व्रजलाल प्रभुका काम करते-करते मृत्युको प्राप्त हुए हैं। मैं जानता हूँ कि मेरे इस कथन में कुछ अतिशयोक्ति है। लेकिन भाई व्रजलालको मैं इतनी अच्छी तरह जानता था कि अगर उनसे कोई उनकी पसन्द पूछता तो जिस तरहसे उनकी मृत्यु हुई है वे उसे ही पसन्द करते[१]

वे धर्मात्मा थे। उन्होंने मुझे अपने हृदयके गहनतम भावोंसे अवगत कराया था। जहाँतक मुझे याद है, एक बार उन्होंने मुझसे एकान्तमें मिलनेकी इच्छा प्रकट की थी। उस अवसरपर उन्होंने मुझे अपने अन्तरतमके भावोंसे परिचित कराया था और अपने धर्म-संकटके सम्बन्धमें बताया था। उन्हें आश्रमका जीवन अत्यन्त प्रिय था, यह तो उनके आचरण से ही स्पष्ट था। उन्हें में मुनि मानता था। वे कदाचित् ही बातचीत करना पसन्द करते थे, फिर भी उनका चेहरा हमेशा प्रफुल्लित रहता था। किसी भी कामको उन्होंने कभी भी तुच्छ नहीं माना और अपनी देह से उन्होंने भरपूर काम लिया।

इस शान्त मूर्तिको भूल जाना कठिन है। भूलना पाप होगा। तो फिर हमेशा के लिए उनकी स्मृतिको हम कैसे बनाये रख सकते हैं? मुझे तो लगता है कि हमारे लिये एक ही रास्ता है और वह है उनके अनेक गुणोंका अनुकरण करना। मौन रहकर प्रफुल्ल चित्त से सेवा करते रहना उन्होंने धर्म माना था। उनके धर्मको स्वीकार कर हम दृढ़तापूर्वक उसका पालन करें तथा इस तरह उनके जीवनको अपने जीवन में उतार कर अमर बनायें।

[गुजराती से]
मधपुडो, खण्ड १, विशेषांक
  1. श्री व्रजलाल किसीका बर्तन कुएँ में गिर जानेके कारण उसे लेनेके लिए उतरे थे। कुएँसे बाहर आते समय वे मूर्च्छित हो उसीमें गिर पड़े और उनकी मृत्यु हो गई।