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असहयोग समिति

है। दूसरे लोग यद्यपि इन जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनमें उद्यमशीलता है, धैर्य है, शान्ति और सचाई है, कठिनाइयोंके बीच साहस कायम रखनेकी क्षमता है और बलिदानकी भावना है; और इन्हीं गुणोंके कारण उन्हें चुना गया है।

यह भी कहा गया है कि इस आन्दोलनका नेतृत्व में करूँगा। लेकिन यह बात अंशतः ही सच है, और मैं ऐसा सिर्फ विनयवश नहीं कह रहा हूँ बल्कि इसलिए कह रहा हूँ कि यह अक्षरशः सत्य है। अगर विश्वास जोर पकड़ गया कि इस आन्दोलनका नेतृत्व में कर रहा हूँ तो यह इसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है। मैं इस आन्दोलनका नेतृत्व इस अर्थ में तो कर रहा हूँ कि मैं एक ऐसा सलाहकार हूँ जिसकी सलाह आज सबसे अधिक स्वीकार की जाती है और असहयोग के कार्यक्रमको कार्यान्वित करनेके जिसके संकल्पका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। लेकिन मैं मुस्लिम लोकमतका प्रतिनिधित्व करने का झूठा दावा नहीं करता। मैं तो सिर्फ उसकी व्याख्या ही कर सकता हूँ। मैं अकेले खड़ा होकर मुसलमान जनताको अपने साथ ले चलनेकी आशा नहीं कर सकता। अगर किसी मिले-जुले मुस्लिम श्रोतृसमूहके सामने मैं धार्मिक मामलोंमें गण्यमान्य मुसलमानोंके खिलाफ कुछ कहना चाहूँ तो लोग शायद मुझे बोलने भी नहीं देंगे और वह ठीक ही होगा। लेकिन अगर मैं मुसलमान होता तो मैं मुसलमानोंकी किसी सभामें प्रतिकूलसे प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी अपनी बात कहने में नहीं हिचकता। मैं अपनेको एक बुद्धिमान कार्यकर्त्ता मानता हूँ और मेरी बुद्धिमत्ताका मतलब इसके अलावा और कुछ नहीं है कि मैं अपनी सीमाओंसे भली-भाँति परिचित हूँ। मेरा खयाल है, मैं इन सीमाओंका अतिक्रमण कभी नहीं करता। कमसे कम जान-बूझकर तो मैंने ऐसा कभी नहीं किया है। हर समझदार मुसलमानोंको मेरी इन सीमाओं और मेरे कार्यक्षेत्रकी मर्यादाओंका ध्यान रखना चाहिए। किसी तरहका अज्ञान इस आन्दोलनकी सफलताके मार्ग में घातक सिद्ध हो सकता है। मैं इस आन्दोलनसे सम्बद्ध हूँ, इस कारण कार्यकर्त्ताओंको सुस्ती अथवा लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए। अगर इस आन्दोलनके साथ मेरे सम्बन्धसे कुछ अच्छे परिणाम निकलते हैं तो इस सम्बन्धका मतलब इतना ही समझना चाहिए कि लोगोंको अधिक सतर्क रहना है, दायित्वभावका अधिक अनुभव करना है, काम करनेकी अधिक क्षमता और इच्छा रखनी है तथा ज्यादा कुशलता दिखानी है। मैं योजनाएँ बना सकता हूँ, लेकिन उन्हें कार्यरूप देना सदैव मुसलमान कार्यकर्त्ताओंके हाथों में ही रहेगा। मेरे-जैसे मित्रोंकी सहायतासे, और जरूरत हो तो उनकी सहायताके बिना भी, यह आन्दोलन उन्हें ही चलाना है, इसका नेतृत्व उन्हें ही करना है। मुझसे ऐसी आशा नहीं करनी चाहिए कि मैं असहयोग करनेवाले लोग तैयार करूँगा; यह तो मुसलमान नेता ही कर सकते हैं। मैं चाहे कितना ही बलिदान करूँ, यानी [मुसलमानोंके] इस धार्मिक मामले में कितना ही बलिदान करूँ, उससे मुस्लिम संसारमें असहयोगकी भावना नहीं आ सकती। जब मुसलमान नेता अपने आचरणमें यह चीज दिखायेंगे तभी जनसाधारणमें यह भावना विकसित होगी।

और अब इस प्रश्नका उत्तर देना बहुत आसान हो गया है कि समितिमें हिन्दू नेता क्यों नहीं शामिल किये गये हैं। सर्वोच्च समिति तो विशुद्ध रूपसे मुसलमानोंसे ही