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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भावना तुष्ट हो सके, तो वे परमश्रेष्ठकी सरकारके साथ सहयोग करना बन्द कर दें और इसीके आधारपर हिन्दुओंसे भी अपने मुसलमान भाइयोंका साथ देनेको कहा है।

यह घोर अन्याय अगर सचमुच मुख्य रूपसे महामहिमके मन्त्रियोंके हाथों न भी हुआ हो तो भी इतना तो है ही कि इसमें वे भी शरीक रहे हैं; और इस अन्यायके प्रति अपना तीव्र विरोध प्रकट करनेके लिए मुसलमानोंके सामने तीन रास्ते थे :

(१) हिंसाका सहारा लेना।
(२) समस्त मुस्लिम जातिको सामूहिक रूपसे हिजरतकी सलाह देना।
(३) सरकारसे सहयोग करना बन्द करके इस अन्याय में शरीक होनेसे इनकार करना।

आप जानते ही होंगे कि एक समय ऐसा भी था जब मुसलमानोंका सबसे साहसी वर्ग—हालाँकि यह वर्ग सबसे अधिक विचारहीन भी था—इस मामले में हिंसाका हामी था; और हिजरत अभी भी इस लड़ाईमें उनका नारा है।[१] लेकिन में नम्रताके साथ यह दावा करता हूँ कि मैंने हिंसाके इन पक्षपातियोंको धैर्यपूर्वक समझा-बुझाकर उस रास्ते से विमुख करने में सफलता पाई है। हाँ, यह स्वीकार करता हूँ कि अगर मैं उन्हें इस रास्तेसे विमुख कर पाया हूँ तो नैतिक आधारपर नहीं बल्कि विशुद्ध व्यावहारिक आधारपर ही समझा-बुझाकर। वैसे उन्हें नैतिक आधारपर समझानेकी मैंने कोशिश भी नहीं की। जो भी हो, उसके परिणामस्वरूप फिलहाल तो हिंसा रुक ही गई है। इसी प्रकार हिजरतके हिमायतियोंने भी अगर अपनी गतिविधि बिलकुल बन्द न कर दी हो तो भी उनपर थोड़ा अंकुश तो लग ही गया है। अगर लोगोंके सामने पर्याप्त बलिदानकी अपेक्षा रखनेवाला, लेकिन साथ ही उसे बहुत सारे लोग स्वीकार कर लें तो सफलताका आश्वासन देनेवाला, सीधी कार्रवाईका तरीका प्रस्तुत नहीं किया जाता तो मेरी मान्यता है कि कठोरसे-कठोर दमनात्मक कार्रवाई भी हिंसा के विस्फोटको नहीं रोक सकती थी। ऐसी सीधी कार्रवाईका एक-मात्र सम्मानित और संवैधानिक तरीका असहयोग ही था, क्योंकि अनन्तकालसे प्रजाको यह अधिकार रहा है कि जिस शासकका शासन अन्यायपूर्ण हो उसे किसी प्रकारसे सहयोग-सहायता देनेसे वह इनकार कर दे।

साथ ही में यह भी स्वीकार करता हूँ कि बहुत अधिक लोगों द्वारा असहयोग करने में कुछ गम्भीर खतरे भी हैं। लेकिन भारत के मुसलमानोंपर आज जैसा संकट आया हुआ है वैसे संकटके समय ऐसी कोई कार्रवाई करके वांछित परिणाम सम्भवतया लाया भी नहीं जा सकता जिसमें अधिक खतरा न हो। अगर हम अभी कुछ खतरा उठानेको तैयार नहीं होते तो उसका मतलब अमन-चैनका पूरा खात्मा भले ही न हो, आज हम जिन खतरोंसे डर रहे हैं, उनसे बहुत बड़े खतरोंको आमन्त्रित करना तो होगा ही।

  1. देखिए "पत्र : स्वामी श्रद्धानन्दको", २-५-१९२० की पाद-टिप्पणी १।