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पत्र : वाइसरायको


सन्धिकी इन शर्तोंसे[१] और आपने उनके बचाव में जो कुछ कहा है[२], उससे भारतके मुसलमानोंको ऐसा लगा है, जिससे सँभल पाना उनके लिए बहुत कठिन होगा। इन शर्तोंसे मन्त्रियों द्वारा दिये वचन भंग होते हैं; इनमें मुसलमानोंकी भावनाओंका कोई खयाल नहीं रखा गया है। मैं समझता हूँ कि एक ऐसे कट्टर हिन्दूके नाते, जो अपने मुसलमान देशभाइयोंके साथ घनिष्ठतम मैत्री सम्बन्ध रखनेका इच्छुक है, में यदि इस संकटकी घड़ी में उनका साथ न दूँ तो भारत माताकी अयोग्य सन्तान सिद्ध होऊँगा। मेरी नम्र सम्मतिमें उनका पक्ष न्याय्य है। उनका कहना है कि अगर उनकी भावनाका खयाल रखना हो तो टर्कीको सजा नहीं देनी चाहिए। मुसलमान सिपाही [अंग्रेजोंके पक्ष में] इसलिए नहीं लड़े थे कि वे अपने हीं खलीफाको सजा दिलायें या उन्हें अपने राज्य-प्रदेशसे वंचित कर दें। इन पाँच वर्षों में मुसलमानोंका रवैया बराबर एक-सा रहा है।

मुझे जिस साम्राज्य के प्रति वफादारी बरतनी है, उसके प्रति मेरा यह कर्त्तव्य है कि मुसलमानोंकी भावनाको पहुँचाये गये निर्मम आघातका विरोध करूँ।

जहाँतक मैं जानता हूँ, हिन्दू और मुसलमान दोनोंको अब ब्रिटेनकी न्याय-भावना और उसकी नेकनीयतीमें विश्वास नहीं रह गया है। और हंटर समितिकी बहुमत समर्थित रिपोर्ट, तत्सम्बन्धी आपके खरीते[३] और श्री मॉण्टेग्युके जवाबसे[४] उनका यह अविश्वास और बढ़ा ही है।

अब इस हालत में मुझ जैसे आदमीके लिए यही एक रास्ता रह जाता है कि या तो वह निराश होकर ब्रिटिश शासन से अपने सारे सम्बन्ध तोड़ ले या अगर अब भी अन्य देशोंके संविधानोंकी तुलना में ब्रिटिश संविधानकी सहज श्रेष्ठतामें उसका विश्वास शेष हो तो वह ऐसे उपायोंका सहारा ले जिनसे इस अन्यायका परिमार्जन हो सके और इस प्रकार खोया हुआ विश्वास लौट सके। पर मैंने ब्रिटिश संविधानकी सहज श्रेष्ठतामें अपना विश्वास नहीं खोया है और मुझे अब भी यह आशा है कि अगर हम कष्टसहनकी आवश्यक क्षमताका परिचय दें तो किसी-न-किसी तरह न्याय प्राप्त होगा ही। सच तो यह है कि मैंने उस संविधानको समझा ही इसी रूपमें है कि वह उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं। मैं यह नहीं मानता कि वह कमजोर लोगोंकी सुरक्षा करता है। इसके विपरीत जो शक्तिशाली हैं, उन्हें वह अपनी शक्ति कायम रखने, उसे बढ़ाने का पूरा अवसर देता है। लेकिन जो कमजोर हैं, उनके लिए उसके अन्तर्गत कोई स्थान नहीं है।

तो ब्रिटिश संविधानकी श्रेष्ठता में अपने इसी विश्वासके आधारपर मैंने मुसलमान भाइयोंको सलाह दी है कि अगर शान्ति सन्धिकी शर्तों में ऐसे परिवर्तन नहीं किये जाते जिनसे मन्त्रियों द्वारा दिये गये गम्भीर वचनोंका पालन हो सके और मुस्लिम

  1. देखिए परिशिष्ट १।
  2. देखिए परिशिष्ट २।
  3. देखिए परिशिष्ट ४।
  4. देखिए परिशिष्ट ५।