धूर्तता दिखा रहा है, और उतनी ही उद्धतता और धूर्तताके स्वरमें वाइसरायने जिस तरह उसका समर्थन किया[१] है, वह सचमुच एक असह्य चीज है।
तुम्हें मुहम्मद अलीकी अर्जी उस सन्धिके समान ही दूषित लगती है। जहाँतक उस अर्जी में सन्धिकी भर्त्सनाका प्रश्न है, मैं तुम्हारी रायसे सहमत नहीं हूँ। मेरा खयाल है कि लगभग सारा भारत मुहम्मद अलीके साथ है। तुम यह कहो कि सन्धिकी भर्त्सना बुद्धियुक्त ढंगसे नहीं की गई है और वह जानकारीपर आधारित नहीं है, बल्कि उसका कारण ब्रिटेनके प्रति अविश्वासकी भावना है, तो इसमें मैं तुमसे सहमत हो सकता हूँ; फिर भी वह भर्त्सनीय तो है ही। आम तौरपर मैं अखबार नहीं पढ़ता, परन्तु 'लीडर' की कतरन भेज रहा हूँ। उसे देख लो। मुहम्मद अली निश्चय ही मानते हैं कि सन्धिकी भर्त्सना करनेमें सारा देश उनके साथ है। टर्कीके अधिराजत्वके उनके दावेके पीछे भी कोई बुरा हेतु नहीं है, क्योंकि उन्हें अपनी माँगकी सचाईमें पूर्ण विश्वास है। उन्होंने किसी भी प्रकारका वचन भंग नहीं किया, क्योंकि उनका दावा तो जो उन्होंने अब किया है, उससे कहीं अधिक था जब कि शान्ति सन्धि निन्द्य हैं, ईश्वर और मनुष्य के प्रति किया गया अपराध है। यह भी याद रखो कि मित्र राष्ट्र अर्थात् साफ-साफ कहें तो इंग्लैंड, अपने पाशविक बलके गुमानमें बातें करते हैं। बेचारे मुहम्मद अली तो जैसा वे स्वयं कहते हैं, एक दुर्बल राष्ट्रके प्रतिनिधि हैं और ऐसे पक्षकी वकालत कर रहे हैं जो पहले ही पूरी तरह परास्त और अपमानित किया जा चुका है। उनकी बात में कुछ अतिशयोक्ति हो तो मैं उसे दरगुजर कर दूँगा। पर दूसरी तरफसे पशु-बलका जो निर्लज्ज प्रदर्शन किया जा रहा है, उसे बरदाश्त करनेको मैं जरा भी तैयार नहीं हूँ। विशुद्ध कष्टसहन अथवा आत्मपीड़नके साधनपर मेरा जो विश्वास है, वह यदि मैं भारत में जाग्रत कर सकूँ तो इस घमण्डको एक क्षणमें चूर कर डालूँ और यूरोपके तमाम गोला-बारूदको निकम्मा बना दूँ।
इस सन्धिकी शर्तोंसे तो में विचलित हो ही उठा था, पर इंटर समितिकी रिपोर्टने तो ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल और वाइसरायकी कौंसिलकी नेकनीयतीमें भी मेरा विश्वास बिलकुल खत्म कर दिया है। इस झंझटमें से श्री मॉण्टेग्यु भी बेदाग नहीं निकले हैं। उन्होंने ईश्वर और शैतान दोनोंको भजनेका प्रयत्न किया और बाबाजीकी दोनों दुनिया बिगड़ीं। अगर ब्रिटिश संविधान इस आघात से बच निकले तो वह सिर्फ इसी कारण होगा कि उसके भीतर कोई जीवन शक्ति होगी। वैसे, जिनके हाथोंमें आज राज्यकी बागडोर है, उन्होंने तो संविधानको मिट्टी में मिला देने में कोई कसर नहीं रखी है। महादेव अभी मुझे याद दिला रहा है कि तुम्हारे जिस पत्रका में जवाब दे रहा हूँ उसे तो तुमने तार देकर रद कर दिया है। परन्तु उससे स्थिति में फर्क नहीं पड़ता। मैं चाहता हूँ कि तुम या तो मेरी ही तरह ब्रिटिश शासन के दोहरे अपराधकी गम्भीरता स्वीकार करो, या फिर मेरी भूल हो तो मुझे बताओ ताकि में उसे सुधार सकूँ।
जाति-व्यवस्था सम्बन्धी अपने विचारोंसे में तुम्हें परेशान नहीं करूँगा। इस मामले में भी मेरी नैतिक स्थितिके सम्बन्धमें तुम्हें चिन्ता नहीं होनी चाहिए। मेरे दृष्टि-
- ↑ अनुमानतः गांधीजीका आशय उस सन्देशसे हैं जो वाइसरायने मुसलमानोंके नाम दिया था। यह सन्देश १४ मई, १९२० को भारत सरकारके असाधारण गज़टमें छपा था। देखिए परिशिष्ट २।