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आत्मत्यागका धर्म

होता है। हरिश्चन्द्रने अपना सत्य सिद्ध करनेके लिए अपार दुःख सहन किये, अपनोंका उद्धार करनेके लिए यीशुने काँटोंका मुकुट पहना, हाथ-पांवोंमें कीलें ठुकवाई और अनन्तः कष्ट सहकर प्राणोंका त्याग किया। यज्ञकी रीति अनादिकालसे चली आ रही है। यज्ञ बिना पृथ्वी एक क्षण भी नहीं टिक सकती। टर्कीने कुस्तुन्तुनियापर अधिकार' करने से पहले असंख्य सिपाहियोंका होम किया और उनके शवोंका पुल बनाया। मुझे हमेशा यह खटका लगा रहता है कि हम कहीं यहाँ हिन्दुस्तानमें, आत्मत्यागके इस सनातन धर्मका त्याग करके तो अपने देशकी प्रगति नहीं करना चाहते । हम स्वराज्य तो सम्पूर्ण चाहते हैं लेकिन जान एक भी खोना नहीं चाहते।

पैसेका होम किये बिना अगर काम चल सके तो चला लेना चाहते हैं। असंख्य लोगों- को असहकारका भय बना हुआ है। जब विचार करता हूँ कि इसका कारण क्या हो सकता है, तो मुझे दो कारण दिखाई देते हैं। एक तो यह कि लोग सोचते हैं कि यदि हम नौकरी छोड़ बैठे तो भूखों मरेंगे; और दूसरे यदि कहीं किसीसे भूल हो गई और सरकारने गोला-बारूद चलाया तो हजारोंकी जानें चली जायेंगी । कहनेका अभिप्राय यह है कि खिलाफत-जैसे जटिल और महान् प्रश्नको हम बिना कोई कष्ट झेले सुल- झाना चाहते हैं। असहकार एक प्रकारका सहलसे-सहल यज्ञ है, एक मामूली-सा तप है; •उसमें बहुत थोड़ा आत्मबलिदान है। बीस-पच्चीस हजार अथवा लाख डेढ़ लाख व्यक्ति न्याय प्राप्त करनेकी खातिर, अन्याय में सहयोग न देनेकी दृष्टि से यदि अपनी नौकरियाँ छोड़ दें तो मैं इसमें दुःख नहीं मानूंगा, बल्कि में तो सुव्यवस्थित संस्थाओंका ऐसे दुःखोंको अपनाना स्वाभाविक मानता हूँ। लोगोंको इनसे भागना नहीं चाहिए बल्कि हर्षपूर्वक इनका आलिंगन करना चाहिए। खिलाफत-जैसे प्रश्नका सीधा हल प्राप्त करनेके लिए हजारों व्यक्ति मर मिटें तो मैं इसे बिलकुल चिन्तनीय न मानूं। उसे तो मैं धर्मभावनाकी कसौटी समझू । मेरा विश्वास है कि ऐसा दुःख झेले बिना कदापि विजय नहीं मिलती तथा में यह भी मानता हूँ कि असंख्य व्यक्ति ऐसा दुःख उठायें तो विजय प्राप्त हुए बिना नहीं रह सकती।

असहकारको लेकर सरकार हमें चाहे जितने कष्ट दे उससे में विचलित अथवा भयभीत होनेवाला नहीं हूँ । सरकारकी ओरसे दिये जानेवाले कष्टोंमें जितनी वृद्धि होगी, इस प्रश्नका निपटारा भी उतनी ही जल्दी होगा, ऐसी मेरी दृढ़ मान्यता है।

भय सिर्फ एक ही बातका है। कहीं लोगोंकी ओरसे कोई भूल हो जाये, लोग कोई गलत काम कर बैठें और फिर वे उसकी सजा भोगें । यदि किसीने क्रोधमें आकर किसी अधिकारीको चोट पहुँचा दी अथवा उसका खून कर दिया तब तो आत्मत्यागके इस यज्ञमें शुद्ध धर्मको हानि पहुँचेगी और उसी हदतक इच्छित फलकी प्राप्तिमें कमी आ जायेगी। आहुति विशुद्ध वस्तुकी ही दी जाती है। हरिश्चन्द्रमें तनिक भी अपवि- त्रता होती और तब उसने राज-पाटका त्याग किया होता तो आज हम उसकी महिमा- का गान न करते। ईसामें सम्पूर्ण निर्दोषताकी कल्पना करके ही ईसाई मतानुयायियोंने उसे तारनहारकी उपमा दी है। इस ढंगसे विचार करते हुए यदि खिलाफत अथवा

१. १४८७ में ।