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२३३. पत्र : छगनलाल गांधीको

[१८ जून, १९२०]

चि० छगनलाल,

तुम्हारा तार मिला। भाई ब्रजलालके विषय में तार पढ़कर में तो स्तब्ध रह गया। मेरी समझमें यह बात बिलकुल नहीं आती कि उनकी मृत्यु आकस्मिक दुर्घटना- से हो सकती है। वे तो सम्पूर्ण सुखकी स्थितिम सिधार गये, किसीसे सेवा-शुश्रूषा नहीं करवाई। आजकल हमारे ऊपर दैवका प्रकोप होता रहता है। उनके भाईको पत्र लिखना; उसमें सबके हस्ताक्षर करवा लेना और साथका पत्र भी भेज देना। अभी तो ज्यादा नहीं लिख सकता। मैं तुम्हारे ब्यौरेवार पत्रकी आशा करूंगा।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ८४२) से।


२३४. आत्मत्यागका धर्म

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।

---गीताजी

करहि जाइ तपु शैलकुमारी । नारद कहा सो सत्य बिचारी।

मातु पितहि पुनि यह मत भावा । तपु सुखप्रद दुःखदोष नसावा ॥

तप अधार सब सृष्टि भवानी । करहि जाइ तप अस जिय जानी ।।

---तुलसी रामायण

यज्ञके अनेक अर्थ किये जा सकते हैं, लेकिन सब धर्मके लोगोंके लिए इस यज्ञका एक ही अर्थ है और वह अर्थ है, वास्तविक उन्नतिके निमित्त प्राणपणतक करनेके लिए तैयार रहना। पार्वतीको शिवजी-जैसा पति चाहिए था, इससे उन्हें तप करनेका आदेश मिला। उन्होंने किस तरहके तप किये, यह जाननेकी जिसे इच्छा हो उसे तुलसीदासका अपूर्व ग्रन्थ देख जाना चाहिए। माँ स्वयं कष्ट भोगकर अपने बच्चेको जन्म देती है और उसका पालन-पोषण करती है। मृत्युसे ही जन्म होता है। अनाजका बीज पृथ्वीमें दबा दबा जब सड़ जाता है और मर जाता है तभी उससे अन्न उत्पन्न

१, २ और ३. देखिए पिछला शीर्षक।

४. हे कुरुसत्तम ! यज्ञले बचा हुआ अमृत खानेवाले लोग ही सनातन को पाते हैं। यज्ञ न करनेवाले के लिए यही लोक प्राप्त नहीं है, फिर परलोक तो हो ही कहाँसे सकता है? गीता, ४-३१।