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कष्टसहन अनिवार्य

चार करें उसका उनपर कोई असर न हो। और यदि भारत अपने प्राचीन ज्ञानको पुनः प्राप्त करना चाहता है, यदि वह यूरोपकी बुराइयोंसे अपनी रक्षा करना चाहता है, यदि वह इस पृथ्वीपर स्वर्गकी स्थापना करना चाहता है और शैतानके राज्यका मूलोच्छेदन चाहता है, जिसने इस समय यूरोपको ग्रस रखा है, तो वह सुन्दर शब्दों के या उन बौद्धिक बारीकियोंके जालमें न फँसे, जिसने उसे चारों ओरसे घेर रखा है; उसे जिन कष्टोंसे होकर गुजरना पड़ सकता है उनका खयाल करके डिंग न जाये, बल्कि वह देखे कि यूरोपमें आज क्या हो रहा है। और उससे यह शिक्षा ग्रहण करे कि जैसे यूरोपको कष्टोंसे गुजरना पड़ा है वैसे ही उसे भी गुजरना है, लेकिन यूरोपसे भिन्न, उसे दूसरोंको कष्ट देने से बचना है। जर्मनी यूरोपपर अपना प्रभुत्व चाहता था और मित्र राष्ट्र भी उसे पराजित करके वही प्राप्त करना चाहते थे। परिणाम क्या हुआ? जर्मनीका पतन हुआ पर यूरोपकी दशामें किसी तरहका सुधार नहीं हुआ। मित्र राष्ट्र भी वैसे ही धोखेबाज, क्रूर, लोलुप और स्वार्थी निकले जैसा जर्मनी था. या होता। कमसे-कम वह उस तरहकी ऊँची-ऊँची बातोंका दिखावा तो न करता जो मित्र राष्ट्र अपने कार्यों में कर रहे हैं।

जिन भूलोंके लिए मैंने गत वर्ष खेद प्रकट किया था, उनका सम्बन्ध जनताको दिये गये कष्टोंसे नहीं, बल्कि जनता द्वारा की हुई गलतियों, और सत्याग्रह सिद्धान्तको ठीकसे समझ न पानेके कारण उसने जो हिंसा की उससे था। तब कष्टसहनकी दृष्टि से विचार करनेपर असहयोगका क्या अर्थ है ? जो सरकार हम लोगोंकी इच्छाके विरुद्ध हमपर शासन कर रही है, उसके साथ सहयोग न करनेके कारण हमें जो हानियाँ और असुविधाएँ उठानी पड़ें, उन्हें हम स्वेच्छापूर्वक सहन करें। थोरोने लिखा है कि बेईमान और अन्यायी सरकारके शासनमें समृद्ध और धनी होना पाप है, अधिकार शाप है; वहाँ तो निर्वन रहना ही गुण है। यह सम्भव है कि संक्रान्तिकी अवस्थामें हम लोग भूलें करें, हमें ऐसी यातनाएँ सहनी पड़ें, जिन्हें हम रोक सकते थे; पर राष्ट्रको पुंसत्वहीन होने देनेकी बनिस्बत मेरी समझमें इन यातनाओंको भोगना अच्छा है।

अन्याय करनेवालेको अपने अन्यायका भान हो और वह उसके निराकरणके लिए तैयार हो, उस समयतक हमें प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। इस भयसे कि हमारे इस तरहके आचरणसे हमें या अन्यको किसी तरहकी यातना भोगनी पड़ेगी, हमें उस अन्यायमें नहीं शामिल होना चाहिए। इसके विपरीत हमें अन्यायकर्त्ताक साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष, किसी भी रूपमें सहयोग न करके अन्यायका मुकाबला करना चाहिए।

यदि पिता अन्याय करता है तो पुत्रका यह धर्म है कि वह पिताका साथ छोड़ दे । यदि किसी स्कूलका प्रधानाध्यापक स्कूलको अनैतिक आधारपर चलाता है तो छात्रोंका धर्म है कि वे फोरन उस स्कूलको छोड़ दें । यदि किसी संस्थाका अध्यक्ष भ्रष्टाचारी है तो उस संस्थाके सदस्योंका धर्म है कि वे उस संस्थासे अलग हो जायें और उसके भ्रष्टाचारमें सहायक न हों। इसी तरह यदि कोई सरकार अन्याय करती है तो प्रजाका धर्म है कि वह सरकारको उस अन्यायसे विमुख कराने के लिये पूर्णतः या अंशतः उसके साथ जितना असहयोग करना जरूरी हो, करे। दोनों ही तरहके असह-