पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 17.pdf/५५८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५२६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

साम्राज्य में एक स्वतन्त्र साझीदार होना है, यदि उसे अपने आत्म-गौरवका जरा भी खयाल है तो यह राष्ट्र ऐसे किसी षड्यन्त्रको सहन नहीं कर सकता। इस रिपोर्टके प्रकाशित होने से जो स्थिति उत्पन्न हो गई है उसपर तथा अन्य अनेक विषयोंपर विचार करनेके लिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीने कांग्रेसका विशेष अधिवेशन' बुलानेका निश्चय किया है। मेरे मतसे वह समय आ गया है कि जब हमें कारगर कार्रवाई के लिए केवल संसद में प्रार्थनापत्र भेजकर ही सन्तुष्ट न हो जाना चाहिए। प्रार्थनापत्रोंका मूल्य तभी समझा जायेगा, जब प्रार्थी राष्ट्रमें अपनी बात स्वीकार करवानेकी शक्ति भी हो । तब हम लोगोंमें ऐसी कौन-सी शक्ति है ? जब हम लोगोंका पक्का विश्वास है कि हमारे साथ घोर अन्याय किया गया है और जब सबसे बड़े अधिकारीके पास प्रार्थनापत्र भेजनेपर भी हमारे साथ न्याय नहीं किया गया, तब उस अन्यायके प्रतिकारके लिए हमारे हाथमें किसी शक्तिका होना आवश्यक है। यह ठीक है कि अधिकांश मामलोंमें साधारण कार्रवाईके असफल हो जानेपर प्रजाका कर्त्तव्य है कि वह चुप्पी लगा- कर उस अन्यायको तबतक बरदाश्त करती जाये जबतक कि उसके किसी मर्मपर आघात न पहुँचे। पर प्रत्येक व्यक्ति और राष्ट्रको यह अधिकार है और उसका कर्त्तव्य भी है कि यदि कोई असहनीय अन्याय किया जाये तो वह उसका विरोध करे। मैं सशस्त्र विद्रोह- में विश्वास नहीं करता। यह उपचार तो उस बीमारीसे बुरा है जिसे दूर करनेके लिए यह उपचार किया जाता है। प्रतिहिंसा अधीरता तथा क्रोधका चिह्न है। हिंसाका अन्तिम परिणाम कभी भी सुखदायी नहीं हो सकता । जर्मनीके मुकाबलेमें मित्र राष्ट्रोंने शस्त्रका प्रयोग किया। उसका क्या परिणाम निकला ? जर्मनीका जैसा चित्र उन देशोंने हमारे सामने खींचा था, क्या उनकी स्वयंकी अवस्था भी वैसी ही नहीं हो गई है?

हमारे पास इससे अच्छा तरीका है। हिंसाके तरीकेके विपरीत, इस तरीके में आत्म-नियंत्रण तथा धैर्यकी आवश्यकता तो निस्सन्देह है ही, पर साथ-ही-साथ दृढ़ निश्चयकी भी आवश्यकता है। इस तरीकेका मतलब है, हम किसी भी प्रकारके अन्याय-कर्ममें सहयोग नहीं देंगे। आजतक कोई भी जालिम अपने जुल्ममें तबतक सफ- लता नहीं प्राप्त कर सका है जबतक जुल्म सहनेवाले स्वयं उसका साथ न दें, भले ही वह जालिम बलप्रयोगसे ही उनका सहयोग क्यों न प्राप्त करे। अधिकतर लोग अत्याचारीकी इच्छाका प्रतिरोध करके उसके परिणामोंको भोगनेके बजाय उसके सामने झुक जाना ही ज्यादा ठीक समझते हैं, और यही कारण है कि अत्याचारीके तरीकोंमें आतंकवाद एक आवश्यक अस्त्र होता है। लेकिन इतिहास में ऐसे भी अनेक उदाहरण मोजूद हैं, जब आततायी आतंकके बलपर, उत्पीड़ित लोगोंसे, अपनी बात मनवानेमें असमर्थ रहे हैं। भारतके लिए भी इस समय विचारका प्रश्न उपस्थित हो गया है। यदि हम लोग यह मानते हैं कि पंजाब सरकारके कार्य ऐसे अन्यायके कार्य हैं जिन्हें सहन नहीं किया जा सकता, यदि लॉर्ड हंटरकी समितिकी रिपोर्ट तथा भारत सरकारके दोनों खरीतोंको हम इसलिए और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण मानते हैं कि इनमें अधिकारि- योंकी अन्यायपूर्ण कार्रवाईयोंको ढाँकनेका प्रयत्न किया गया है तो यह स्पष्ट है कि हम

१. कलकत्ता में, सितम्बर १९२० में।