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खिलाफत: कुछ और प्रश्नोंके उत्तर

(२) यदि उनकी मांगें सिद्धान्त रूपमें न्यायपूर्ण भी हों तो भी तुकं लोग इतने अक्षम, कमजोर और नृशंस हैं कि उनकी सहायता नहीं करनी चाहिए।

(३) यदि तुर्कोंकी माँगें न्यायोचित हैं और उन्हें सब-कुछ मिलना चाहिए तो भी में व्यर्थ ही भारतको अन्तर्राष्ट्रीय झंझटमें क्यों डाल रहा हूँ?

(४) भारतके मुसलमानोंको इस झंझटमें पड़नेकी कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। यदि उनके हृदयमें किसी तरहकी राजनैतिक आकांक्षा हो तो वे उसके लिए प्रयत्न कर चुके, उसमें वे असफल हुए और अब उन्हें चुप होकर बैठ रहना चाहिए। पर यदि वे इसे धार्मिक प्रश्न मानते हैं तो जिस प्रकार यह प्रश्न प्रस्तुत किया जाता है, उस रूपमें हिन्दू उससे सहमत नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त मुसलमानों और ईसाइयोंके धार्मिक कलहमें हिन्दुओं- को मुसलमानोंका साथ नहीं देना चाहिए।

(५) किसी भी अवस्था में मुझे असहयोगका प्रचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह कितना भी शान्तिमय क्यों न हो किन्तु चरम अर्थमें वह विद्रोह- के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

(६) इसके अतिरिक्त, विगत वर्षके अनुभवोंसे' मुझे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि देशमें हिंसाकी जो आग दबी हुई है, उसे नियन्त्रित कर सकना किसी भी एक आदमीकी शक्तिसे बाहर है।

(७) असहयोग व्यर्थ है, क्योंकि लोग सच्चे हृदयसे इसमें शामिल नहीं होंगे और बादमें उसकी जो प्रतिक्रिया हो सकती है, उसके फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाली स्थिति मौजूदा आशापूर्ण स्थितिसे कहीं खराब होगी।

(८) असहयोगका परिणाम यह होगा कि अन्य सभी प्रकारकी गति- विधियाँ रुक जायेंगी, यहाँतक कि सुधारोंका काम भी बन्द हो जायेगा और इस प्रकार प्रगति धीमी पड़ जायेगी।

(९) मेरी नीयत कितनी ही साफ क्यों न हो, पर मुसलमानोंके हृदय में बदलेके भाव भरे हैं।

जिस क्रममें ये आपत्तियाँ प्रस्तुत की गई हैं, उसी क्रमसे अब में उनके उत्तर दूंगा:

(१) मेरी समझमें बात सिर्फ इतनी ही नहीं है कि तुर्कोंकी माँग अनैतिक और अनुचित नहीं हैं, बल्कि इसके विपरीत वे बहुत ही न्यायसंगत हैं और किसी कारण से नहीं तो कमसे-कम इसी कारणसे कि तुर्क लोग केवल वही चाहते हैं जो उनका अपना है। फिर मुसलमानोंने अभी हालमें जो घोषणा-पत्र निकाला है, उसमें उन्होंने साफ-साफ शब्दों में लिख दिया है कि गैर-मुसलमान और गैर-तुर्क जातियोंकी रक्षाके लिए जिस तरहकी गारंटी उचित समझी जाये, तुर्कोंसे ले ली जाये ताकि टर्की साम्राज्यकी सर्वोच्च सत्ताके अन्तर्गत रहते हुए अरबों और ईसाइयोंको अलग-अलग स्वशासन प्रदान कर दिया जाये।

१. रौलट विधेषक विरोधी आन्दोलनके सिलसिले में।