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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इन गुणोंका पर्याप्त विकास होनेपर ही हम स्वदेशी सम्बन्धी मेरी कल्पनाको, जो इस समय धूमिल-सी जान पड़ती है, ठोस आधारपर साकार बना सकेंगे। अब अन्त्यजोंके प्रश्नको लिया जाये। हिन्दुस्तानके मंदभाग्यका इस प्रश्नसे घनिष्ठ सम्बन्ध है। अन्त्यजोंके सम्बन्धमें पूछते हुए इस बहनने यह शंका उठाई है कि क्या हम अन्त्यजोंको उनकी वर्तमान स्थितिसे निकालकर हिन्दुस्तानको उन्नत कर सकेंगे?

मुझे लगता है कि अवश्य ही ऐसे परिणामकी उपलब्धि हो सकती है, क्योंकि जिस शक्तिके द्वारा हम इस महापापसे मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे उस शक्तिके द्वारा हम अन्य पापोंसे भी मुक्त हो सकेंगे। मेरी दृढ़ मान्यता है कि जबतक हम कतिपय पाप-कर्मोमें फंसे हुए हैं तबतक हिन्दुस्तानका भाग्योदय नहीं होगा। मैं एक अन्त्यजकी सेवा करके सारी कौमकी सेवा करता हूँ, ऐसी मेरी मान्यता है। जिस तरह अन्त्यज दुःखी हैं उसी प्रकार अन्य लोग भी दुःखी हैं; तथापि अन्त्यजोंपर हम धर्मके नामपर अत्याचार करते हैं इसलिए एक जागरूक हिन्दूके रूपमें, स्वयं इस अधर्मसे बचने तथा दूसरोंको इससे बचाना में अपना विशेष कर्त्तव्य समझता हूँ। अन्त्यजोंके दुःखोंकी तुलना हम जनताके किसी भी अंगके दुःखोंके साथ नहीं कर सकते। अन्त्यज अस्पृश्य है--हम यह कैसे मानते हैं। मेरी बुद्धि इस बातको ग्रहण नहीं कर सकती और जब मैं इसका विचार करता हूँ तब मेरा हृदय काँपता है। मेरी आत्मा इस बातकी गवाही देती है कि अस्पृश्यता कदापि हिन्दू-धर्मका अंग नहीं हो सकती। हिन्दू-संसारने अज्ञानवश इतने वर्षोंतक उन्हें अस्पृश्य मानकर जो पाप कमाया है उसे दूर करनेके लिए अपने समस्त जीवनको अर्पण करनेकी बातको भी में अधिक नहीं मानता और मुझे इस बातका बड़ा दुःख है कि मैं अपना सारा समय इस कार्यमें नहीं लगा पाता।

इसमें अन्त्यजोंके साथ खाने-पीने अथवा विवाह आदि करनेका कोई प्रश्न नहीं उठता। प्रश्न केवल छूने या न छूनेका ही है। अन्त्यज मुसलमान हो तो मैं उसका स्पर्श करूँ, ईसाई बने तो उसे सलाम करूँ; जिस ईसाई अथवा मुसलमानका वह स्पर्श करता है उन्हें छूनमें मैं पाप नहीं मानता लेकिन उस अन्त्यजको स्पर्श करते हुए मुझे संकोच होता है। यह विचार तो मुझे अन्याय-भरा, विवेक रहित तथा अधार्मिक लगता है। इसीसे मैं अन्त्यजको छूकर अपने आपको पवित्र हुआ मानता हूँ और अनेक रूपसे मर्यादा में रहकर हिन्दू समाजसे इस दोषसे मुक्त हो जानेके लिए आग्रह करता रहता हूँ। इस बहनसे भी, जिसने सरल भावसे उपर्युक्त पत्र लिखा है, में प्रार्थना करता हूँ कि वह अपनी उत्तम शक्ति और प्रभावका उपयोग करके हिन्दू समाजको अस्पृश्यताके पापसे मुक्त करनेमें भागीदार बने तथा नित्य स्वयं थोड़ी देर अपने घरमें चरखा कातकर अपना उतना समय हिन्दुस्तानकी सेवामें अर्पित करे एवं अपनी अज्ञानी बहनोंके सम्मुख एक उदाहरण प्रस्तुत करे।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ३०-५-१९२०