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असहकार कैसे ढील होती है?

असह्कार-जैसे शस्त्र के उपयोग में जो तत्त्व निहित है, उसे तो इस पत्र लेखकने समझा ही नहीं है। और उसमें मुसलमान भाइयों-जितना धीरज भी नहीं है। मेरी कल्पनामें ऐसी कोई बात ही नहीं है कि असहकार सिर्फ निशस्त्र प्रजाका हथियार है। निर्बल और सबल सब उसका उपयोग कर सकते हैं। किन विशेष प्रसंगोंमें असहकार धर्म है, यह में समझा चुका हूँ।

इंग्लैंडके मन्त्रियोंपर जो आरोप लगाये गये हैं वे अनुचित हैं। प्रधान मन्त्रीने इस प्रश्नके सम्बन्ध में विश्वासघात किया है, यह में मानता हूँ लेकिन सम्पूर्ण ब्रिटिश मन्त्रि- मण्डल बेईमान अथवा विश्वासघाती है अथवा भारतके अधिकारी बिलकुल स्वेच्छाचारी हैं, ऐसा कमसे-कम मैं तो नहीं मानता। अंग्रेज प्रजा अथवा अंग्रेज मन्त्रिमण्डल हमारी तुलना में बिलकुल अयोग्य हैं और हम गुणोंके भंडार हैं, ऐसी मेरी मान्यता नहीं। अंग्रेज जनतापर में स्वयं तो मुग्ध हूँ। यह जनता शूरवीर, भोले हृदयकी तथा कुछ हदतक ईश्वरसे डरनेवाली है, बिल्कुल धर्मसे विमुख नहीं है। वे लोग जिस तरह पशुबलकी पूजा करते हैं उसी तरह आत्मिक बलको भी पहचानते हैं। इनसे अनक भूलें हुई हैं किन्तु इन्होंने अनेक पुण्यकर्म भी किये हैं। इस जातिमें सही अर्थोंमें कुछ योगी हुए हैं और वे पूजनीय हैं। उसमें जो योजना-शक्ति है, जो धैर्य है, जो कला है, वह अनुकरणीय है। उसमें दोष देखने के कारण तथा हिन्दुस्तानके प्रति उसने जो अन्याय किया है उसके कारण में अपनी न्यायवृत्तिको खोने अथवा दबा देनेके लिए तैयार नहीं हूँ। जिस हदतक में अंग्रेजोंके अन्यायके विरुद्ध जूझा हूँ उस हदतक दूसरा कोई शायद ही जूझा होगा। लेकिन इस जूझनेके पीछे मेरे अन्तरतम में उस जातिके प्रति मेरा स्नेहभाव अथवा, मोह कहें तो, मोह निहित है। मेरे विचारसे आत्मिक बलको जितनी जल्दी अंग्रेज पहचानते हैं उतनी जल्दी भारतकी जनताको छोड़कर और किसी राष्ट्रकी जनता नहीं परख सकती तथा मैंने अपने अनेक संघर्ष इसी आधारपर चलाये हैं। लेकिन यदि मेरा अनुमान गलत हो, तो भी मेरे लिए पश्चात्तापका कोई कारण नहीं होगा; क्योंकि मेरे किसी भी संघर्षका आधार बाह्य वस्तुपर न होकर उसके सम्बन्धमें अपनाये गये साधनोंकी निर्मलतापर निर्भर है। सत्यको कालकी बाधा कभी नहीं व्यापती। सत्यमें धीरजको पर्याप्त अवकाश है। सत्यका आचरण करनेवाले को [विजयके लिए] रुके रहने में भयका कोई कारण नहीं होता।

और फिर नरम दलवालों पर कैसे-कैसे आक्षेप [लगाए गये हैं।] ये लोग मात्र देशद्रोही तथा खुशामदी हैं, यदि जनताका एक बड़ा हिस्सा ऐसा मानता हो तो मुझे अवश्य ही निराशा और दुःख हो। में तो दोनों पक्षोंको' देशका हितेच्छु मानता हूँ। जिस समय हम सब सोये हुए थे उस समय सुरेन्द्रनाथकी आवाजसे सारा हिन्दुस्तान गूंज रहा था। एक समय ऐसा था कि जब सर दिनशा वाछाके शब्दोंने बम्बई

१. राष्ट्रवादी तथा नरमदलीय।

२. सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (१८४८-१९२५); १८९५ तथा १९०२ में कांग्रेस अध्यक्ष; नादमें नरम दलके नेताओंमें से एक।

३. दिनशा ईदुलजी वाछा ( १८४४-१९३६); १८९६-१९०० तक कांग्रेसके संयुक्त सचिव,

१९०१ में कांग्रेस अध्यक्ष और बादमें नरम दलके नेताओंमें से एक।