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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चौथाई प्रजा मुसलमान है। संकटके समय इन लोगोंकी भाँति उत्कट राज-भक्ति और तत्परतासे साम्राज्यकी सहायता किसी औरने नहीं की। 'हम लोगोंने उन्हें गम्भीर वचन दिया और उन्होंने उसे भरोसेके साथ स्वीकार कर लिया।'अब वे उस वचनका पालन न होनेकी आशंकाके कारण परेशान हैं।

उस प्रतिज्ञाका अथं कैसे और कौन लगाये? भारत सरकारने स्वयं उस प्रतिज्ञाका क्या अर्थ लगाया? उसने इस दावेका जोरदार समर्थन किया या नहीं कि मुसलमानों के पवित्र क्षेत्रोंपर नियंत्रणका पूर्ण अधिकार खलीफाके हाथमें हो? क्या भारत सरकारने ऐसा कुछ कहा कि अपने वचनकी रक्षा करते हुए भी जजीरत-उल-अरबका पूरा हिस्सा खलीफाके प्रभाव क्षेत्रसे लिया जा सकता है और संरक्षणके लिए मित्र-राष्ट्रोंको सौंपा जा सकता है? यदि सन्धिकी शर्तें बिल्कुल वैसी हैं जैसी कि होनी चाहिए थीं तो फिर भारत सरकार मुसलमानोंके साथ सहानुभूति क्यों प्रगट कर रही है ? वचनोंके विषयमें इतना ही कहना है। मैं यह भली-भाँति समझा देना चाहता हूँ कि मेरे बारेमें किसीको यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इस मामलेकी मेरी वकालतका सारा दारोम- दार श्री लॉयड जॉर्जकी इस घोषणापर ही है। मैंने इसीलिए उसके सम्बन्धमें समझ- बूझकर "प्राय: शब्दका प्रयोग किया है। वह एक महत्त्वपूर्ण विशेषण है। श्री कैंडलर ऐसा संकेत करते मालूम होते हैं कि मेरा अभिप्राय खिलाफतके मामले में न्याय करानेके सिवा और कुछ भी है। उनका खयाल सही है। न्याय प्राप्त करना, अवश्य ही में जो कुछ चाहता हूँ, उसकी आधारशिला है और यदि मुझे यह विदित हो जाये कि इस सम्बन्धमें न्यायकी मेरी धारणा गलत है तो मैं तुरन्त वापस सही रास्तेपर चलनेकी हिम्मत भी दिखाऊँगा। लेकिन में कुछ और भी चाहता हूँ; भारतके मुसलमानोंके इतिहासके इस संकटकालमें उनकी सहायता करके में उनकी मैत्री प्राप्त करना चाहता हूँ । इसके अतिरिक्त, यदि में मुसलमानोंको अपना साथी बना सका तो मुझे आशा है कि मैं ब्रिटेनको पतनके उस मार्गसे हटा लूंगा जिसकी ओर मेरी समझमें उसके प्रधान मन्त्री उसे लिये जा रहे हैं। मैं समस्त भारत और ब्रिटिश साम्राज्यको यह दिखला देना चाहता हूँ कि यदि जनतामें आत्मत्यागकी अमुक क्षमता हो तो अंग्रेजों और भारतीयोंके बीच कटुताके बीज बोये या कटुताको भावनाको कोई बढ़ावा दिये बिना, पूर्ण शान्तिमय तथा पवित्र तरीकोंसे ही न्याय प्राप्त हो सकता है, क्योंकि मेरे तरीकोंका अस्थायी प्रभाव चाहे जो हो, परन्तु में उन्हें इतना समझता हूँ कि मुझे दृढ़ विश्वास है कि वे और केवल वे ही ऐसे तरीके हैं जिन्हें अपनाकर चलनेसे दोनों पक्षोंके बीच कटुताकी कोई स्थायी भावना नहीं आ सकती। वे घृणा और असत्यके दोषोंसे मुक्त हैं, उनमें तात्कालिक लोभके लिए अनुचित साधनोंका सहारा लेनेकी बात नहीं है।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, २६-५-१९२०