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बरातें

दोनों पक्षोंने इस आशयके प्रस्ताव पास किये हैं, लेकिन इन प्रस्तावोंकी कीमत तो प्रस्तावकर्त्ताओंके व्यवहारसे ही आँकी जायेगी। कोई कानून उन्हें ऐसा करनेके लिए विवश नहीं कर सकता। यह तो दोनों पक्षोंकी ईमानदारी तथा भलमनसीपर ही निर्भर करता है। इसलिए पंचोंपर निर्भर रहनेकी अपेक्षा मजदूर-पक्षकी विनय तथा आदरपूर्ण व्यवहारपर आधारित रहना चाहिए और मालिक-पक्षको मजदूरोंके प्रति पितृ-भाव रखना चाहिए, जिससे हड़तालका अथवा पंच नियुक्त करनेका अवसर ही न आये। मजदूरोंको समझ लेना चाहिए कि जबतक उनकी मांगोंमें कुछ औचित्य है तभीतक उन्हें पूज्य अनसूयाबेन अथवा भाई शंकरलाल बैंकरकी सेवाएँ प्राप्त हो सकती हैं। वैसे इन दोनोंका अन्तिम लक्ष्य तो यही है कि मजदूर-पक्षको उनकी सेवाएँ लेनेका अवसर ही न आये। ऐसा शुभ परिणाम प्राप्त किया जा सके तो सबका ध्यान मजदूरोंकी आन्तरिक स्थितिको सुधारनेकी ओर दौड़े तथा उस ओर अधिक ध्यान दिया जा सके। भारतमें सभी दिशाओं में इस समय ऐसे कार्य किये जानेकी बड़ी आवश्यकता है। जागृति आई है, उत्साह बढ़ा है, बलमें वृद्धि हुई है, लेकिन यदि इस शक्तिका विवेकपूर्वक सदुपयोग न किया गया तो जिस तरह जलप्रपात उपयोगके अभावमें नाहक इधर-उधर बह जाता है उसी तरह यह शक्ति भी बिखर जायेगी। और कई बार जिस तरह जलप्रपात रास्ता बदलनेपर नुकसानका कारण बन जाता है उसी तरह यह शक्ति भी हानिकारक हो जा सकती है। मजदूरोंको अपनी आन्तरिक स्थिति सुधारनेका प्रयत्न करना चाहिए, यह बात कहनेकी कोई जरूरत नहीं है, बल्कि मुझे उम्मीद है कि इसमें मालिक-वर्ग पूरी दिलचस्पी लेगा और मजदूरोंकी मदद करेगा। उसमें उनका अपना स्वार्थ भी छिपा हुआ है। जगत्का यह अनुभव है कि जहाँ स्वार्थ और परमार्थ साथ-साथ चलते हैं वहाँ सुन्दरसे सुन्दर परिणामोंकी उपलब्धि होती है, भगवान् करे कि मिल-मालिकों और मजदूरोंको भी ऐसा ही अनुभव हो।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, २३-५-१९२०


२०६. बरातें

इस सम्बन्ध में एक विदुषी बनने मुझे पत्र लिखा है। उसके निम्नलिखित भागको महत्त्वपूर्ण समझ में 'नवजीवन' के पाठकोंके सम्मुख पेश कर रहा हूँ।'

पत्रको यहाँ उद्धृत करनेका मेरा उद्देश्य यह है कि जिस विषयपर मैंने चर्चा करनेकी हिम्मत की उस विषयपर लोग विचार करने लगें और उनमें से कुछ उसपर अमल भी करें। ऐसे लोकोपयोगी सुधारोंके सम्बन्धमें हम सिर्फ अच्छे विचार रखकर ही सन्तुष्ट नहीं रह सकते। बल्कि जो विचार हानिकारक लगें उन्हें तुरन्त निकाल डालनेकी हमें आदत डालनी चाहिए। बड़ीदासे मेरे पास अनेक व्यक्ति आए।

१. यहाँ उद्धृत नहीं किया गया है। गांधीजीने विवाहके रिवाजोंको लेकर जो आलोचना की थी पत्र भेजनेवाली महिलाने उसका समर्थन किया था; देखिए “तीन प्रसंग", ९-५-१९२०।