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प्रतिज्ञा-भंग

१४ मुद्दोंके' बारे में कुछ नहीं कहूँगा क्योंकि लगता है उन्हें तो एक दिनका चमत्कार मानकर, अब बिलकुल भुला दिया गया है। बहुत दुःखकी बात है कि भारत सरकारने अपनी विज्ञप्तिमें सन्धिकी शर्तोंकी सफाई पेश की है, उन्हें ५ जनवरी, १९१८ की श्री लॉयड जॉर्जकी प्रतिज्ञाका पालन बतलाया है पर साथ ही उनके सदोष स्वरूपके लिए क्षमा याचना की है और भारतीय मुसलमानोंसे अपील की है कि अब वे इन शर्तोको चुपचाप स्वीकार लें। मुझे तो ऐसा ही लगता है कि इस किस्मकी अपील करके सरकारने उन्हें मानो चिढ़ाया है। धोखेकी टट्टी इतनी मोटी नहीं है कि वह लोगोंसे असलियतको छिपा सके। यदि भारत सरकारने अपनी विज्ञप्तिमें निर्भीकतासे यह स्वीकार कर लिया होता कि श्री लॉयड जॉर्जने उक्त वचन देकर भूल की थी, तो सरकारकी मर्यादाके ज्यादा अनुकूल होता । पर इस प्रकार स्पष्ट रूपसे वचन- भंग करनेके बाद वचन पूरा करनेके इस दावेसे तो उससे होनेवाली झुंझलाहट और भी बढ़ती है। वाइसरायकी इस उक्तिका कि ---"खिला- फतका प्रश्न सिर्फ मुसलमानोंका प्रश्न है, इसमें उनको पूरी स्वतंत्रता है और सरकार इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहती", क्या मतलब बच रहता है जब कि खलीफाका राज्य निर्दयताके साथ छिन्न-भिन्न कर दिया गया है, मुसलमानोंके पवित्र तीर्थ-स्थान निर्लज्जतापूर्वक उनसे छीन लिये गये हैं और उन्हें उनके ही महलमें रख दिया गया है जहाँ उनकी हैसियत एक बिलकुल अशक्त और असहाय आदमीकी है और इसलिए जिसे अब किसी भी तरह महल नहीं कह सकते बल्कि जेलखाना कहना अधिक उपयुक्त होगा। इस परिस्थिति में बड़े लाटका यह कहना है कि “शान्ति-संधिमें ऐसी बातें हैं जिनसे मुसलमानोंको बड़ा ही दुःख होगा ", आश्चयं- जनक नहीं है। तब फिर भारतीय मुसलमानोंके पास प्रोत्साहन और सहानुभूति- सन्देश भेजकर उनकी बुद्धिका अपमान वे क्यों कर रहे हैं? क्या उनसे सन्धिकी उन उद्धत शर्तोंके क्रूर विवरणसे, अथवा यह स्मरण करके कि हमने “साम्राज्यकी जरूरतके समय में " सम्राट्की पुकारपर "बहुत अच्छी" सहायता की, प्रोत्साहन प्राप्त करनेकी आशा की जाती है? महामहिमको यह शोभा नहीं देता कि वे न्याय और मानवताके जिन आदर्शोंके लिए मित्र राष्ट्रोंने युद्ध किया था उनकी विजयकी बात करें। यदि तुर्कीके साथ तथाकथित शान्तिकी शर्तें बरकरार रहीं तो वे मनुष्यके अन्याय तथा दर्पका अभिलेख होंगी। किसी वीर और साहसी जातिके तेजको, उसके युद्ध में हार जाने के कारण कुचल डालनेका प्रयत्न करना मानवताकी विजय नहीं वरन् दानवताका प्रदर्शन है। और यदि युद्धके पहले तुकं लोग ब्रिटेनकी घनिष्ठ मैत्रीका लाभ पा रहे थे तो उनकी भूलके लिए ब्रिटेनने उन्हें नीचा दिखाने में सबसे ज्यादा हिस्सा लेकर निश्चय ही काफी बदला ले लिया है। ऐसी अवस्था में बड़े लाटका यह कहना असह्य हो जाता है कि "इस नई सन्धिकी शर्तोंके बाद वह पुरानी मैत्री पुनः शीघ्र पनपेगी और नई आशा तथा नई शक्तिसे सम्पन्न नया टर्की

१. मित्र राष्ट्रोंने इन मुद्दोंको शान्तिको स्थापनाके आधारके रूपमें स्वीकार किया था।

२. १४ मई, १९२० को प्रकाशित; देखिए परिशिष्ट २।