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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

व्यक्त करनेमें न चूके तबतक उसके साथ असहयोग करनेका कोई कारण नहीं हो सकता। भारत सरकार कभी-कभी भूल अवश्य करती है, पर खिलाफतके मामलेमें तो उसको नीति सही है और इसलिए प्रत्येक भारतवासीका धर्म है कि उसके साथ सहानुभूति प्रकट करे और पूर्ण सहयोग करे। मुझे पूर्ण आशा है कि आप मेरे कथनपर अच्छी तरह विचार करेंगे और 'यंग इंडिया' में इसका उत्तर देंगे।

उपर्युक्त पत्रको में सहर्ष स्थान दे रहा हूँ और मेरे अंग्रेज मित्रने जिन कठिनाइयों- का अनुभव किया है, उनका सार्वजनिक उत्तर देनेके सुझावको भी मान रहा हूँ क्योंकि उस तरहकी कठिनाइयाँ बहुत लोग अनुभव करते हैं । अक्सर महान ध्येयों- की विफलताका कारण यह नहीं होता कि कतिपय ऐसे लोग उसका प्रबल विरोध करते हैं जो किसी अन्यायको चिरस्थायी बनानेकी इच्छावश सचाईको देखना ही नहीं चाहते, बल्कि यह होता है कि ये कतिपय व्यक्ति अपने पक्षमें उन लोगोंका समर्थन प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं जो किसी भी प्रश्नको ठीकसे समझने के बाद ही पक्ष ग्रहण करते हैं। ऐसे ईमानदार व्यक्तियोंके साथ पूर्ण धैर्यके साथ बातचीत करके ही अपने विचारोंको परखा जा सकता है, अपने निर्णयोंकी भूल सुधारी जा सकती है और कभी-कभी उन लोगोंके भ्रमका निवारण करके उनको अपने पक्षमें लाया जा सकता है। खिलाफतका प्रश्न विशेष रूपसे जटिल प्रश्न है क्योंकि उसके साथ कई गौण प्रश्न जुड़े हुए हैं। इसलिए यदि बहुतसे लोगोंको अपना मत स्थिर करने में कम या अधिक कठिनाईका सामना करना पड़े तो कोई आश्चयंकी बात नहीं। यह प्रश्न और भी जटिल इसलिए हो गया है कि वर्तमान अवस्थामें इसके सम्बन्धमें कोई सीधी कार्रवाई करनेकी दुःखद आवश्यकता उत्पन्न हो गई है। चाहे हमारी कठिनाई कितनी भी बड़ी क्यों न हो, हमारा यह दृढ़ मत और विश्वास है कि यदि हम भारतमें शान्ति और मेलजोल चाहते हैं तो इस प्रश्नपर विचार करना हमारे लिए सबसे अधिक आवश्यक है।

मेरे मित्रको मेरे इस कथनपर आपत्ति है कि असहयोग सरकार विरोधी नहीं है क्योंकि उनका विचार है कि सरकारी नौकरीसे इनकार करना तथा मालगुजारी न देना व्यवहारतः सरकार विरोधी कार्य हैं। मैं सादर इस मतसे असहमति व्यक्त करता हूँ। यदि एक भाईका अपने दूसरे भाईसे सैद्धान्तिक मतभेद हो और यदि उस भाईके साथ रहनेका अर्थ उसकी समझमें अन्यायमें साथ देना है तो मेरा विचार है कि भाईके नाते उसका कर्त्तव्य यह है कि वह उस भाईकी सहायता न करे और अपनी कमाई उसके साथ मिलाकर न रखे। यह प्रतिदिनके जीवन में होता है। प्रह्लादका पिता हिरण्यकशिपु अतिशय दुष्ट और क्रूर था। प्रह्लादने अपने पिताके पापाचारमें योग न देकर उनके विरुद्ध कोई काम नहीं किया। ईसाने मक्कारों और 'फैरीसियों' के विरुद्ध जब घोषणा की और उनसे किसी तरहका सम्बन्ध नहीं रखना चाहा, तो उनका यह कार्य यहूदी-विरोधी कार्य नहीं था। ऐसे मामलोंमें किसी कार्य विशेषके पीछे जो मंशा होता है, क्या वही असली चीज नहीं है? हमारे मित्रने लिखा है कि साधारण स्थितिमें