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कुछ प्रश्नोंका उत्तर

नहीं है। " पर सरकारसे हर तरहका सम्बन्ध तोड़ लेना, इस हदतक कि उसकी नौकरी न करना, मालगुजारी आदि न देना, यदि सिद्धान्ततः नहीं तो व्यवहारमें तो संस्कार के विरुद्ध अवश्य है और इस तरहके काम अन्ततः शासनका कार्य अवश्य ही असम्भव कर देंगे। आगे चलकर आप फिर लिखते हैं "जो सरकार अपनी प्रजाकी बात नहीं सुनती है, उसकी प्रजाका स्वाभाविक अधिकार है कि वह उसकी सहायता करने से इनकार कर दे। " आपने जो मन्तव्य उपस्थित किये हैं वे नैतिक बुष्टिसे सही हैं या नहीं, इस प्रश्नको छोड़ भी दें, तो मैं पूछना चाहूँगा कि इस समय आपका अभिप्राय किस सरकारसे है ? क्या भारत सरकारने इस मामलेमें अपनी शक्तिभर काम नहीं किया है ? यदि भारतकी प्रार्थना पहुँचानेका उसका प्रयत्न विफल हो जाये तो क्या उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई करना उचित और न्यायपूर्ण होगा ? क्या यह रास्ता उचित नहीं होगा कि मित्र राष्ट्रोंकी सुप्रीम कौंसिल (सबसे बड़ी सभा) के साथ असहयोग किया जाये और यदि इस बातका पक्का प्रमाण मिल जाये कि ब्रिटेनने वहाँपर भी भारत सरकार तथा भारतीय प्रजाकी माँगोंका समर्थन नहीं किया है तो उसके साथ भी असहयोग किया जाये। मुझे प्रतीत होता है कि लिखते और भाषण करते समय आप इस बातको भूल जाते हैं कि इस [खिलाफतके] मामलेमें भारत सरकार प्रजाके साथ है और यदि उनकी उचित माँगें पूरी नहीं की जातीं तो भी सरकारके साथ असहयोगका प्रश्न कहाँ उठता है? "भारतके मुसलमानोंपर जो बोझ है उसको हलका करनेमें हिन्दू, अंग्रेज तथा भारत सरकार सभी हाथ बँटा रहे हैं, आदि। "" इतनेपर यदि हम लोगोंको सफलता नहीं मिलती तो क्या करें? क्या हमें असहयोग करना चाहिए? और यदि करना चाहिए तो किसके साथ?

निम्नलिखित तरीकेपर कार्य करनेका सुझाव में देना चाहता हूँ:-

(१) 'प्रतीक्षा कीजिए और देखिए" कि तुर्कीके साथ सन्धिकी शर्ते वास्तवमें क्या होती हैं।

(२) यदि ये शर्तें भारत सरकार तथा भारतको प्रजाकी आकांक्षाओं और सिफारिशोंके अनुकूल न हों तो उनमें सुधार लानेके लिए हर वैध तरीकेसे प्रयत्न करना चाहिए।

(३) हमें उस सरकारके साथ अन्ततक सहयोग करना चाहिए जो हमारे साथ सहयोग करती है और जब वह सहयोग त्याग दे तभी हमें उससे असहयोग करना चाहिए।

मेरी समझमें असहयोग करनेके ऐसे कोई भी कारण अभीतक तो उप- स्थित नहीं हुए हैं, और जबतक भारत सरकार भारतकी माँगों और जरूरतोंको

१, २ व ३. देखिए " असहयोगको कार्यान्वित कैसे करें?", ५-५-१९२०।