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स्वदेशीका उत्तरोत्तर विकास

हमें आशा है कि अब चूंकि खद्दरकी मांग सिद्ध हो चुकी है, इसलिए भारतके हर कोने-अंतरेमें खद्दरके उत्पादनको उत्तेजन दिया जायेगा।

लेकिन, स्वदेशीकी लोकप्रियताका सबसे बड़ा उदाहरण तो यह है कि श्रीमती सरलादेवी चौधरानी और निश्छल तथा अविश्रान्त समाज-सेवी मौलाना हसरत मोहानीकी पत्नी श्रीमती मोहानीने भी इसे अपना लिया है। श्रीमती चौधरानीको खिलाफत कान्फ्रेंसके सिलसिलेमें बरेली जाना था। उसकी तैयारी करते हुए उन्होंने लाहौरसे लिखा:

अपना सामान बांघते समय मेरे मनमें यह कशमकश रही कि साथमें क्या ले चलना चाहिए और क्या नहीं -वहाँ भाषण देते समय खद्दरके वस्त्र पहनने चाहिए या स्वदेशी रेशमी वस्त्र, हालांकि इन दोनोंका भेद आसानीसे समझा नहीं जा सकता---कपड़े ट्रंकमें रखकर ले चलने चाहिए या वैसे ही बिस्तरबन्दमें रखकर? पहलेकी तरह भड़कीली और फैशनेबल पोशाक पहननी चाहिए या आम लोगोंकी सीधी-सावी पोशाक? अन्तमें मैंने निर्णय दूसरी बातके पक्षमें किया है। लेकिन इस नवीनताको अपनाने में कुछ समय तो लगेगा ही और कठिनाई भी होगी।

अपने बरेलीके अनुभवोंके बाद लिखे पत्र में वे कहती हैं:

अभी कुछ मुसलमान परिवारोंसे मिलकर लौटी हूँ। एक घरमें दो स्त्रियाँ-एक गृह-स्वामीकी पत्नी और दूसरी बहन। उन्होंने चरखा और स्वदेशीका व्रत लिया। एक दूसरे घरमें छः स्त्रियाँ थीं--सबकी-सबने यह व्रत लिया।यह कच्छी बोहरोंका परिवार था, जो गदरके जमानेमें आकर यहाँ बस गया था। ये लोग बड़े सम्पन्न और सुसंस्कृत थे। देखती हूँ, इन प्रदेशोंमें में स्वदेशी और चरखेका प्रचार बहुत अच्छी तरह कर सकती हूँ। मेरी स्वदेशी पोशाकका असर हो रहा है। श्रीमती मोहानीने बरेलीमें एक सभा बुलाई थी, उसमें पन्द्रह मुसलमान स्त्रियोंने स्वदेशीका व्रत लिया

स्वदेशीपर प्रस्तुत किये गये एक प्रस्तावपर हिन्दुस्तानी में बोलते हुए उन्होंने भारतकी गरीबी और उसकी दो आवश्यकताओं ---भोजन और वस्त्र---पर विशेष जोर दिया और कहा कि अगर हम अपने घरकी व्यवस्था नहीं कर पाते, अपने लिए पेट-भर भोजन नहीं जुटा सकते तो फिर देशकी व्यवस्था कैसे कर पायेंगे? यह विचित्र बात है कि लोग ऐसी सभाओंमें जानेको तो तैयार रहते हैं जिनमें उनसे कोई काम करनेको, कुछ बलिदान करनेको नहीं कहा जाता, लेकिन जिन सभाओंमें उनके सामने कोई बड़ा सत्य रखा जाता है या उनसे हर कीमतपर स्वदेशीको अप- नानेके अपने बुनियादी कर्त्तव्यका पालन करने जैसी बात कही जाती है, उन सभाओं में जानेसे वे कतराते हैं। श्रीमती चौधरानीने उनसे स्वर्गीय विद्यासागरकी' जैसी भावनासे

१. ३ मई, १९२० को।

२. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर (१८२०-१९०१); संस्कृतके विद्वान्, शिक्षाशास्त्री एवं बंगालके समाज- सुधारक।