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१९१. पत्र : देवदास गांधीको

आश्रम

वैशाख बदी १३ [१७ मई, १९२०]

चि० देवदास,

तुम्हारे ६ तारीखके पत्रसे में स्तब्ध रह गया । तुम्हारे बीमार होनेका भय मुझे सदैव बना रहता है। मैं तुमसे यहाँ आनेका आग्रह नहीं करता, इसका एक कारण मेरा यह भय भी है। मुझे ऐसा लगा कि तुम्हारा किसी ठंडे स्थान में अकेले रहना तुम्हारे लिये हितकर होगा। अब तुम्हारा दूसरा पत्र पानेके लिए अधीर हूँ। ६ तारीख- से पहलेका पत्र तो मेरे पास है ही नहीं; पता नहीं मिलेगा भी कि नहीं। आजकल डाककी गड़बड़ीका कुछ हिसाब ही नहीं है। मैंने पंडितजीको तुम्हारे बारेमें तार दिया था, उसका भी उत्तर नहीं आया है। स्मरण रहे कि मैं तीस तारीखको काशीजी आनेवाला हूँ। अब यदि तबतक तुम वहीं रहो, तो कोई हर्ज नहीं। हम मिलनेपर भविष्यके सम्बन्धमें विचार करेंगे।

लगता है कि विलायत जाना तो नहीं हो सकेगा। शर्तें मालूम हो गई हैं, इस- लिए अभी तो यही सलाह करनी है कि क्या किया जाये।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्च:]

कुमारी फैरिंग परसों डेनमार्कके लिए रवाना होंगी।

गुजराती पत्र (एस० एन० ७१७३) की फोटो-नकलसे।

१९२. वक्तव्य : समाचारपत्रोंको

टर्कीके साथ शान्ति-संधिकी शर्तें निःसन्देह भारतीय मुसलमानोंपर एक भीषण प्रहार है । यद्यपि सरकारी विज्ञप्ति में यह दावा किया गया है कि शान्ति-संधिकी शर्तोसे श्री लॉयड जॉर्ज द्वारा ५ जनवरी, १९१८ को दिये गये वचनका निर्वाह हो जाता है, फिर भी मेरी रायमें इनसे न तो उस वचनके शब्दोंका निर्वाह होता है और न वचनकी भावनाका ही। लेकिन अब सवाल है कि आगे क्या करना है। मैं आशा

१. वैशाख कृष्ण १३ को १६ मई थी; पर पत्रके अन्त में कुमारी फैरिंगका उल्लेख है जो १९ मई, १९२० को डेनमार्कके लिए रवाना हुई थी।

२. पं० मदनमोहन मालवीय।

३. टर्कीके साथ शान्ति-सन्धिकी शर्तोपर। शर्तोंके पाठके लिए देखिए परिशिष्ट १।