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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लगनी चाहिए। इसके बजाय हम देखते यह हैं, माँ अपने विधुर पुत्रका तुरन्त पुनर्विवाह करना चाहती है और सास भी अपने विधुर दामादको विवाहके लिए प्रोत्साहित करती है, तथा दामाद भी इन प्रस्तावोंको सुनकर तनिक भी लज्जित नहीं होता। ऐसा पुरुष चाहे जितना रोये-धोये, वह अपनी पहली पत्नीकी यादको स्थायी बनानेके चाहे जितने उपाय स्थिर करे, उनका कोई अर्थ नहीं माना जा सकता, फिर इसके सिवा यह नवागता दूसरी पत्नी ही अपने प्रति दिखाये जानेवाले प्रेमका कितना मूल्य आँक सकती है? ऐसे जीवनको कोई किस तरह विचारमय मान सकता है? मुझे तो इसमें अधर्म ही दिखाई देता है और जबतक पुरुषवर्ग इस तरहका उद्धत व्यवहार करनेसे बाज नहीं आता तबतक उसके द्वारा वैधव्यका बखान किया जाना भी मुझे तो दंभ और पुरुषके स्वार्थकी परिसीमा जान पड़ती है।

जिस स्त्री के साथ वर्षोंतक मंत्री रखी, जिसके दुःखमें दुःखी हुए, सुखमें भाग लिया, जिसका रात-दिनका साथ रहा, उस स्त्रीकी मृत्यु होनेपर क्या सामान्य मित्रके वियोगमें जितना शोक होता है उतना शोक भी नहीं करना चाहिए? इंग्लैंडमें जहाँ विधवाको पुनविवाह करनेकी छूट है वहाँ लोक-लज्जाके कारण भी कुलीन परिवारकी स्त्रीको एक वर्षतक विवाह करनेकी हिम्मत नहीं पड़ती। लेकिन हिन्दुस्तान के पुरुषकी कुलीनता अधिकांशतः श्मशानकी हदसे आगे नहीं जा सकती। और किसी-किसी समय तो जहाँ एक ओर चितामें अपनी स्त्रीको देह भस्म हो रही होती है वहीं दूसरी ओर श्मशान में ही [पुरुषके] सगे-सम्बन्धी उसके साथ नये विवाहकी बात करते हुए नहीं हिचकिचाते एवं विधुर पुरुष भी उसे सुनने में लज्जाका अनुभव नहीं करता। भारतका इस दयाजनक स्थितिसे उबरना आवश्यक है। विधवा-विवाहके आन्दोलनमें भी में तो जाने- अनजाने पुरुषका ही स्वार्थ देखता हूँ। विधवाको पुनर्विवाहके लिए तैयार करके वह अपनी शर्मको भूलना चाहता है। यदि विधवाके वैधव्य-दुःखको पुरुष मानता हो तो स्वयं अखण्ड पत्नीव्रतका पालन करके इस दुःखको भुला सकता है। इन विषयोंके सम्बन्धमें लोकमत इतना ज्यादा क्षीण हो गया है कि मैंने हिन्दुस्तानमें सर्वत्र कुलीन परिवारके सुशिक्षित पुरुषोंको भी अनमेल विवाह करने तथा विधुर होनेपर तुरन्त ही पुनविवाह करनेमें तनिक भी लज्जित होते नहीं देखा।

लेकिन पुरुष अपने कर्त्तव्यका पालन करें अथवा न करें, स्त्रियाँ अपने अधिकारों- को क्यों नहीं सिद्ध करती? स्त्रियोंको मताधिकार अवश्य मिलना चाहिए, लेकिन जो स्त्रियाँ अपने सामान्य अधिकारोंको नहीं समझतीं, अथवा समझते हुए भी उन अधि- कारोंको प्राप्त करने की शक्ति नहीं रखतीं वे स्त्रियाँ मताधिकारको लेकर क्या करेंगी ? स्त्रियाँ भले ही मताधिकार प्राप्त करें, भले ही हिन्दुस्तान की धारासभामें जायें; लेकिन स्त्रियोंका पहला कर्त्तव्य पुरुषोंकी ओरसे जाने-अनजाने किये जानेवाले अत्याचारोंसे मुक्ति पा भारतको श्री-सम्पन्न और वीर्यवान बनाना है। जबतक अज्ञानी माँ अपनी उतनी ही अज्ञानी लड़कीको हालमें ही विधुर हुए पुरुषकी विषयाग्निमें होमनेको तैयार है तभी- तक ऐसे पुरुष जिनके अभी वियोगके आँसू सूखे भी नहीं हैं--पुनर्विवाह करनेका विचार कर सकते हैं। मेरी तो मान्यता है कि इस तरह के सुधार करना स्त्रियोंका