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१८४. खिलाफत

खिलाफतके सम्बन्धमें अनेक प्रश्न उठते रहते हैं। उसपर समाचारपत्रोंमें भी बहुत चर्चा होती रहती है। बहुत से लोग कहते हैं कि असहकारसे खून-खराबी होगी; और यदि ऐसा हुआ तो असहकारसे क्या लाभ होगा? जोखिम तो सभी बड़े कामोंमें रहता है; असहकारमें भी कुछ-न-कुछ जोखिम तो रहेगा ही। जिन्दगी जोखिम और खतरोंसे भरी हुई है। साहसके बिना मोक्ष भी नहीं मिलता। भ्रान्तिसे भरा हुआ मनुष्य तो सिर्फ इतना ही सोच सकता है कि अमुक कार्य करने में अधिक जोखिम है या न करने- में, और यदि करने में कम जोखिम हो तो भी क्या वह ऐसा है कि दूसरे अन्य कारणोंके आधारपर उक्त काम किये बिना नहीं रहा जा सकता?

मेरी दृढ़ मान्यता है कि यदि असहकार आन्दोलन आरम्भ न हुआ होता तो खून-खराबी कबकी शुरू हो गई होती। असह्कारके कारण ही खून-खराबी नहीं हुई है। मुसलमान भाइयोंका खून खौल रहा है, लेकिन हिन्दू उनके साथी हैं, इस विचारसे वे धीरज रखे हुए हैं। लेकिन इसपर भी जब उन्हें न्याय न मिलनेकी आशंका हुई तब वे सोचमें पड़ गए । अब क्या करें? कुछ-एक लोग खून-खराबीकी बात सोचने लगे, बहिष्कारका अनुचित विचार किया। लेकिन उन्होंने देखा कि यदि बहिष्कार उचित हो तो भी वह नहीं किया जा सकता। इसी बीच दिल्लीमें हुए प्रथम सम्मेलनमें ही मैंने असह्कारका सुझाव दिया। उसे उन्होंने एक मतसे स्वीकार कर लिया। मैंने उनसे कहा कि आप जब हिंसाका विचार त्याग देंगे तभी असहकार आन्दोलन चल सकेगा। हिंसाका एक भी कृत्य यदि हमारे हाथों अथवा हमारी मार्फत हुआ तो कमसे-कम मैं तो आन्दोलनसे अलग हो जाऊँगा। उन्होंने मेरी इस शर्तको स्वीकार कर लिया और उन्होंने यह भी देखा कि असहकार कुछ हदतक हिंसाकी अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावशाली अस्त्र है। तब असहकारकी हवा बहने लगी और आज असहकार व्यापक हो गया है; इसीसे हम हिन्दुस्तान में परम शान्तिका अनुभव करते हैं। यदि असहकारको मुसल मानोंने स्वीकार न किया होता तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि हिन्दुस्तानकी बड़ी दुर्दशा होती। यह मैं मानता हूँ कि सरकार हिंसाको दबा देती लेकिन हिंसा होती जरूर । असहकार आन्दोलनके बावजूद हिंसा हुई तो भी सरकार हमें दबा सकेगी। सवाल सिर्फ इतना ही है कि असहकारके बिना हिंसा होती या नहीं? इसका उत्तर निस्सन्देह "हाँ" ही है।

अब हमें इस बातपर विचार करना है कि असहकार अन्य दृष्टियोंसे भी जरूरी है या नहीं। इसके कारण हिंसा रुक गई है, सिर्फ इसी कारणसे हम असहकार आन्दो- लनमें जुट नहीं सकते। दुनियामें अनेक अनुचित कार्य होते रहते हैं। उन्हें रोकनेके उपाय सूझनेके बावजूद हम उन उपायोंको करनेके लिए अपने-आपको बँधा हुआ नहीं मानते।

१. यह २३-२४ नवम्बर, १९१९ को हुआ था।