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खिलाफत

काम उचित या अनुचित साधनोंसे जैसे भी हो अपना मतलब गाँठना होता है। और सच्चे अंग्रेज न्यायके पक्षमें अपनी राय देनेकी इच्छा होनेपर भी विरोधी मतोंसे बहक- कर और विकृत कथनोंके प्रभाव में आकर प्राय: अन्तमें अन्यायके साधन बन जाते हैं।

उपर्युक्त पत्रके लेखकने अपने कथनके पक्षमें जो तर्क पेश किये हैं वे प्रतीतिजनक हैं सही किन्तु वे काल्पनिक सामग्रीपर आधारित है। उन्होंने सफलतापूर्वक सिद्ध कर दिया है कि मुसलमानोंका पक्ष, जैसा वह उनके सम्मुख प्रस्तुत किया गया है, बिलकुल निस्सार है। भारतमें, जहाँ खिलाफतसे सम्बन्धित तथ्योंकी तोड़-मरोड़ करना इतना आसान नहीं, अंग्रेज मित्र स्वीकार करते हैं कि भारतीय मुसलमानोंकी मांग नितान्त न्यायसंगत है। किन्तु वे कहते हैं कि कुछ करना उनके बसकी बात नहीं और भारत सरकार एवं श्री मॉण्टेग्यु, जहाँतक मनुष्यके बसकी बात है, सब-कुछ कर चुके हैं, और यदि अब निर्णय इस्लामके विरुद्ध होता है तो भारतीय मुसलमानोंको चुप बैठ रहना चाहिए। यह असाधारण स्थिति, आजके युगमें काम जिस तेजीसे किया जाता है, उसके और सब उत्तरदायी लोगोंकी व्यस्तताके कारण ही बनी है, अन्यथा वह सम्भव न होती।

इस मामलेकी जैसी कल्पना लेखकने की है, उसपर अब हम क्षण-भरके लिए विचार करें। वे कहते हैं कि भारतीय मुसलमान अरबोंके विरोधके बावजूद अरब देशमें टर्कीका शासन कायम कराना चाहते हैं। और यदि अरब लोग टर्कीका शासन नहीं चाहते तो लेखकका तर्क यह है कि जब भारत स्वयं आत्मनिर्णयके दर्जेपर जोर दे रहा है, तब किसी भी झूठी धार्मिक भावनाके कारण अरबोंके आत्मनिर्णयके अधिकारमें बाधा नहीं पड़ने दी जा सकती। अब तथ्य यह है कि जिन लोगोंने इस मामलेका तनिक भी अध्ययन किया है, वे सभी जानते हैं कि मुसलमानोंने अरबोंके विरोधके होते हुए अरब देशमें टर्कीका शासन कायम करनेकी माँग कभी नहीं की है। इसके विपरीत उन्होंने यह कहा है कि अरब लोगोंके स्वशासनके अधिकारका विरोध करनेका उनका कतई कोई इरादा नहीं है। वे केवल इतना ही चाहते हैं कि अरब देशपर टर्कीका ऐसा अधिराजत्व रहे जिसमें अरबोंको स्वशासनका पूरा अधिकार हो । वे इस्लामके तीर्थ-स्थानोंपर खलीफाका नियन्त्रण चाहते हैं। दूसरे शब्दोंमें कहें तो लॉयड जॉर्जने जो आश्वासन दिया था उससे अधिक वे कुछ नहीं चाहते। और इसी आश्वासनके सबबसे मुसलमान सिपाहियोंने मित्र देशोंकी ओरसे लड़ते हुए अपना रक्त बहाया था। इसलिए उक्त उद्धरणमें पेशकी गई यह सारी लम्बी-चौड़ी दलील और यह सारा जोरदार विवे- चन छिन्न-भिन्न हो जाता है, क्योंकि मामला वैसा है ही नहीं जैसा इसमें मान लिया गया है। मैं पूरी शक्तिसे इस मामले में इसीलिए पड़ा हूँ, क्योंकि ब्रिटेनके वायदे, शुद्ध न्याय और धार्मिक भावना सभी बातोंका इसमें संयोग है। मैं ऐसी परिस्थितिकी कल्पना कर सकता हूँ जिसमें विशुद्ध न्याय एक बात कहे और अन्धी धार्मिक भावना उससे बिल्कुल उलटी। उस हालत में मुझे इस धार्मिक भावनाका ही विरोध करना चाहिए और विशुद्ध न्यायका पक्ष लेना चाहिए। में एक अन्यायपूर्ण उद्देश्यका समर्थन करने-

१. अपने ५ जनवरी, १९१८ के भाषण में।