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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मर जाना अधिक अच्छा है। मैं चाहता हूँ कि हमारी भावी पीढ़ियाँ यह याद रखें कि हम लोगोंने, जिन्होंने इन निर्दोष लोगोंको मरते देखा था, अकृतज्ञतापूर्वक उनकी स्मृतिको कायम रखने से इनकार नहीं किया। श्रीमती जिन्नाने इस कोषमें अपना हिस्सा देते समय ठीक ही कहा था कि यह स्मारक हमें कमसे-कम जीवित रहनेका कोई बहाना देगा। हम जिस भावनासे स्मारक बनायेंगे उसीसे तो इसका स्वरूप निश्चित होगा।

यह "बृहत्तर सहजीवन" क्या था जिसका उपदेश बुद्ध और ईसाने दिया था? बुद्धने निर्भय होकर अपने विरोधियोंसे सीवी टक्कर ली थी और गर्वीले पुजारी वर्गको पराजित किया था। ईसाने महाजनोंको जेरूसलेमके मन्दिरसे निकाल दिया था और दम्भियों एवं पाखंडियोंको स्वर्गसे अभिशाप दिलाया था। दोनों ही तीव्र सीधी कार्रवाईके हिमायती थे। किन्तु जैसे बुद्ध और ईसाने ताड़ना दी वैसे ही उनके प्रत्येक कार्यके मूल असंदिग्ध रूपसे दयाभाव और प्रेमभाव भी था। वे अपने शत्रुओंके खिलाफ एक अँगुली भी न उठाते थे; लेकिन वे जिस सत्यके लिए जीते थे उसका त्याग कदापि नहीं करते थे, उसके बजाय वे शत्रुको अपना सिर समर्पित करनेको तैयार रहते थे। यदि बुद्धका प्रेम पुजारियोंको झुकाने के लिए पर्याप्त सिद्ध न होता तो वे उन पुजारियों- का विरोध करते हुए अपने प्राण दे देते। ईसा पूरे साम्राज्यको चुनौती देते हुए अपने सिरपर काँटोंका ताज पहने हुए सूलीपर मरे और यदि में अहिंसात्मक प्रतिरोध करता हूँ तो विनम्रतापूर्वक केवल उन महान् शिक्षकोंका ही अनुसरण करता हूँ जिनका उल्लेख मेरे आलोचकने किया है।

अन्ततः उक्त अवतरणका लेखक मेरे द्वारा "दलोंके संगठनका" विरोध करता है और यह चाहता है कि "मैं संसारको एक करनेका बृहत्तर कार्य" अपने हाथमें ले लूँ। मैंने एक बार, जब वे और में एक ही मकानमें थे, उनसे कहा था कि मैं शायद उनसे अधिक विश्वप्रेमी हूँ। मैं उस बातको अभीतक मानता हूँ। में जबतक दलोंको संगठित न करूँ तबतक में समस्त संसारका संगठन नहीं कर सकूँगा। टॉल्स्टॉयने एक बार कहा था कि यदि हम केवल अपने पड़ोसियोंपर से अपना बोझ दूर कर दें तो संसारको हमारी और अधिक सहायताकी आवश्यकता न होगी और वह उसके बिना बिलकुल ठीक चलेगा और यदि हम अपने निकटस्थ पड़ोसियोंकी इतनी ही सेवा करें कि उनका शोषण बन्द कर दें तो इस प्रकार ठीक ढंग से संगठित किये गये दलोंका घेरा तबतक बढ़ता ही जायगा जबतक वह आखीरमें अपने भीतर समस्त संसारका ही समावेश नहीं कर लेता। इससे अधिक करने या पानेका सामर्थ्य तो किसी भी मनुष्यमें है नहीं। 'यथा पिंडे तथा ब्रह्माण्डे" यह वचन आज भी उतना ही सत्य है जितना सत्य वह तब था जब कि यह किसी अज्ञात ऋषिके मुंहसे निकला था।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, १२-५-१९२०


१. जैसा पिंढमें है वैसा ही ब्रह्माण्ड में है।