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न संत, न राजनीतिज्ञ

से ही सही, न्याय करनेमें गर्व अनुभव किया था जिसके बारेमें उन्होंने सन् १९०९ में लॉर्ड मॉलेसे कहा था कि वह कदापि न हटाया जायेगा, क्योंकि तब उन्होंने कहा था कि दक्षिण आफ्रिका उस कानूनका रद किया जाना कभी सहन न करेगा जो ट्रान्सवाल- के विधान-मण्डलमें दो वार पास किया जा चुका है। किन्तु इतना ही नहीं, विशेषता यह है कि जो सीधी कार्रवाई आठ वर्षतक चली, उसके बाद कोई कटुता शेष नहीं रही। इतना ही नहीं बल्कि जिन भारतीयोंने जनरल स्मट्ससे ऐसी डटकर लड़ाई की थी, वेही १९१५ में जनरल स्मट्सके झंडेके नीचे इकट्ठे हो गये और पूर्व आफ्रिकामें उनकी अधीनतामें लड़े।' चम्पारनमें एक लम्बे अरसेसे चली आती हुई शिकायत सीधी कार्र- वाईसे ही दूर हुई। जब कोई मनुष्य ऐसी एक निर्योग्यताकी व्यथासे पीड़ित हो, जिसे दूर करनेपर वह प्रसन्न हो, तब उसे स्वीकार करनेसे एकता नहीं बढ़ती, बल्कि उससे कमजोर पक्ष कटु और क्रुद्ध हो जाता है एवं अवसर मिलनेपर विस्फोटके लिए तैयार हो जाता है। कमजोर पक्षके साथ मिलकर उसे सीधी, मजबूत किन्तु हानिरहित कार्रवाई करना सिखाकर मैं उसे यह अनुभव कराता हूँ कि वह मजबूत है और शरीरबलको चुनौती दे सकता है। वह अपने में संघर्षकी शक्ति अनुभव करता है, उसमें आत्मविश्वास फिर आ जाता है, और यह जानते हुए कि इसका उपाय उसीके हाथमें है, वह अपने मनसे बदलेका भाव निकाल देता है एवं जिस अन्यायको दूर कराने के लिए वह लड़ रहा है, उसके दूर कर दिये जाने से सन्तुष्ट होना सीखता है।

मैंने इसी रास्तेपर चलते हुए जलियाँवाला बागके सम्बन्धमें एक स्मारक बनानेका सुझाव दिया है। 'ईस्ट ऐंड वेस्ट' में जिस व्यक्तिन यह लेख लिखा है उसने मुझपर एक ऐसा प्रस्ताव रखनेका दोष लगाया है जो मेरे दिमागतक में कभी नहीं आया। उसका खयाल है कि "मैं जलियाँवाला बागके गोलीकाण्डका स्मारक" बनाना चाहता हूँ। मुझे एक कुकृत्यकी स्मृतिको स्थायी बनानेका कभी खयाल भी नहीं आ सकता। मेरा खयाल है कि अपने न्याय्य अधिकार पाने से पहले हमें इस प्रकारकी घटनाओंका सामना पुनः करना होगा और में निर्दोष मृतकोंकी स्मृतिको कायम रखकर राष्ट्र- को उसके लिए तैयार करूँगा। विधवाओं और अनाथोंकी सहायता की गई है और की जा रही है; किन्तु हम यदि उस जमीनको, जो उनके रक्तसे पवित्र हुई है, प्राप्त नहीं करेंगे और वहाँ उनके लिए एक उचित स्मारक नहीं बनायेंगे तो हम उन आत्माओंकी शान्तिको कामना नहीं कर सकते जो कारण जाने बिना मारे गये। जहाँतक मेरा बस चलेगा वह स्मारक उस दूषित कार्यकी याद न दिलायेगा बल्कि उससे राष्ट्रको यह प्रोत्साहन मिलेगा कि अत्याचारीकी अपेक्षा असहाय, निशस्त्र और पीड़ितके रूपमें

१. एक बार १९०६ में ट्रान्सवाल एशियाई कानून संशोधन अध्यादेशके रूपमें और दोबारा १९०७ में ट्रान्सवाल एशियाई पंजीयन अधिनियमके रूप में।

२. १९०६ से १९१४ तक।

३. प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनोंके विरुद्ध पूर्व आफ्रिकार्मे।

४. चम्पारन-सत्याग्रह, जिसका नेतृत्व १९१७ में गांधीजीने यूरोपीय जमीदारोंके विरोध में नोलकी खेतीके मजदूरोंकी शिकायतें दूर करवाने के लिए किया था।