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न संत, न राजनीतिज्ञ

उत्पन्न नहीं होती। क्या श्री गांधीको बिलकुल विश्वास है कि वे अहिंसाके उच्च- तम निर्देशों के अनुसार काम कर रहे हैं। उन्होंने जलियाँवाला बाग गोलीकाण्डकी स्मृति-रक्षाका जो प्रस्ताव रखा है उससे एकता बढ़ने की सम्भावना नहीं है। यह एक दुःखजनक घटना है जो हमारी सरकारके हाथसे धोखे में हो गई है। किन्तु क्या इसकी कटुता स्मरण रखने योग्य है? क्या हम इस घटनाकी स्मृति एक शान्ति-मन्दिरका निर्माण करके, विधवाओं और अनाथोंको सहायता देकर और इस तरह उन लोगोंकी, जो अपनी मृत्युका कारण जाने बिना मारे गये, आत्माओं- की शान्तिको कामना करके नहीं मना सकते। संसारमें ऐसे राजनीतिज्ञों और छुटभय्योंकी बहुलता है जो देशभक्तिके नामपर मनुष्यको आन्तरिक मृदुताको विषाक्त बनाते हैं और फलस्वरूप युद्ध, झगड़े और जलियाँवाला बाग-जैसे हत्याकाण्ड आदि होते हैं। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि अब हम एक ऐसे व्यापक सहजीवनकी स्थापनाके लिए कोशिश करें जिसका उपदेश बुद्ध और ईसाने दिया था और इस तरह सारी दुनियाको--सब देशोंको साथ-साथ फलने-फूलनेका अवसर दें। जान पड़ता था कि श्री गांधी ऐसे आन्दोलनके नेता बनेंगे; किन्तु परिस्थितियाँ उन्हें प्रतिरोध खड़ा करने और दलोंको स्थापित करनेका मार्ग अपनाने को बाध्य कर रही हैं। वे अब भी संसारके एकीकरणका बृहत्तर पुनीत कार्य अपने हाथमें ले सकते हैं।

मैंने पूरा उद्धरण दे दिया है। सामान्यतः मैं अपनी या अपने तरीकोंकी आलोचना- के बारेमें यहाँ तभी लिखता हूँ जब उसके द्वारा मुझ कोई भूल स्वीकार करनी होती है या आलोचित सिद्धान्तोंपर और अधिक जोर देना होता है। मेरे पास इस उद्धरण- का उल्लेख करने के दो कारण हैं: मुझे आशा है कि जो सिद्धान्त मुझे प्रिय हैं, उनका इस तरह में और अधिक स्पष्टीकरण कर पाऊँगा, और दूसरे में इस आलोचनाके लेखक- के प्रति अपना आदर-भाव भी दिखाना चाहता हूँ। बात यह है कि इस आलोचकको में न केवल जानता हूँ बल्कि उनके अनुपम चारित्रिक गुणोंका में वर्षोंसे प्रशंसक भी रहा हूँ। आलोचकको मेरी राजनीतिक प्रवृत्ति देखकर दुःख है, क्योंकि वह मुझसे संत होनेकी आशा करता था। मेरा खयाल है कि वर्तमान जीवनसे 'संत' शब्दको हटा देना चाहिए। यह शब्द इतना अधिक पवित्र है कि यह किसीके लिए यों ही प्रयुक्त नहीं किया जा सकता और मुझ जैसे किसी व्यक्तिके लिए तो और भी नहीं जो केवल एक मामूली- सा सत्यान्वेषी होनेका ही दावा करता है, जो अपनी सीमाएँ जानता है, भूलें करता है, और जब भी भूलें करता है, उन्हें स्वीकार करने में कभी नहीं झिझकता और साफ-साफ स्वीकार करता है कि वह एक वैज्ञानिककी भाँति जीवनके कुछ नित्य सत्योंके सम्बन्ध में प्रयोग मात्र कर रहा है; किन्तु जो एक वैज्ञानिक होनेका भी दावा नहीं कर सकता क्योंकि वह अपने तरीकोंकी वैज्ञानिक यथार्थताका कोई ठोस प्रमाण नहीं दे सकता या अपने प्रयोगोंके कोई वैसे ठोस परिणाम नहीं दिखा सकता जैसे आधुनिक विज्ञान चाहता है। किन्तु यद्यपि संतपनको अस्वीकार करके में आलोचककी आशाओंकी पूर्ति नहीं