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मजदूरोंकी स्थिति

बनाये ही जा सकते हैं; तोशक बन सकते हैं। ऐसे अनेक उपयोग हो सकते हैं। मैं यह भी नहीं कहता कि जिनको जरूरत नहीं है वे लोग खादीका प्रयोग करनेकी खातिर व्यर्थ पैसे खर्च कर दें। इससे भी जनताको पूरा लाभ नहीं मिलेगा। लेकिन यह जरूर कहूँगा कि हम जिस-जिस रूपमें खादीका उपयोग कर सकते हैं, उस-उस रूपमें हमें उसका ही उपयोग करना चाहिए। मनमें खादीका ही प्रयोग करनेकी लगन रहे तो हम समझ सकेंगे कि इसका कहाँ-कहाँ सदुपयोग हो सकता है।

ज्यादा खादी तैयार करने के सम्बन्ध आन्दोलन चल ही रहा है, खादीका अधिक उत्पादन हो ही रहा है। इसको बेचनेकी व्यवस्था भी होनी चाहिए। उसमें बम्बईके व्यापारियोंकी मदद चाहता हूँ। खादीमें उचित सुधार किये जाने के सुझाव भी उपयोगी सिद्ध होंगे। जहाँ-जहाँ स्वदेशी भंडार खुले हुए हैं वहाँ-वहाँ उनके व्यवस्थापकोंको खादी मँगवा लेनी चाहिए। खादीके समान ही अन्य माल भी तैयार होने लगेगा। हाथसे बुने स्वदेशी मालका शौक जब जनतामें पैदा होगा तभी हाथसे कताई और बुनाई करनेका काम तीव्रतासे चलने लगेगा।

इस सम्बन्धमें मुझे पंजाबमें जो अनुभव हो रहा है उससे मैं देखता हूँ कि यदि लोगोंमें स्वदेशीकी शुद्ध भावना उत्पन्न हो जाये तो बहुत बड़ी संख्यामें पंजाबकी स्त्रियाँ कातनेका अपना पुराना काम शुरू कर दें। पंजाब ऐसा प्रदेश है जो स्वदेशीका धाम हो सकता है। पंजाबमें कपास पैदा होती है, वहाँ लगभग प्रत्येक स्त्रीको कातना आता है, वहाँ बुनकर है; जो भी सामग्री चाहिए वह पंजाबमें है। लेकिन इस समय बम्बई व्यापारका मुख्य केन्द्र है इसलिए वहाँके व्यापारियोंकी मदद चाहिए।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ८-२-१९२०

१७. मजदूरोंकी स्थिति

हिन्दुस्तानके सम्मुख आज दो रास्ते हैं, या तो वह पश्चिमकी नीतिको यानी इस सिद्धान्तको स्वीकार कर ले कि "जिसकी लाठी उसकी भैंस", अर्थात् शक्ति ही सत्य है; सत्य ही शक्ति है—सो नहीं। या फिर वह पूर्वके सिद्धान्तको मान्य करे। वह यह है कि जहाँ धर्म है वहाँ ही जय है, साँचको आँच नहीं है; निर्बल और सबल, दोनोंको न्याय प्राप्त करनेका समान अधिकार है।

इन दो नीतियोंमें से किसी एकका चुनाव करने के इस कार्यका श्रीगणेश मजदूर-वर्गको करना है। यदि हिंसाके द्वारा वेतनोंमें वृद्धि करानी सम्भव हो तो क्या उन्हें ऐसा करना चाहिए? उनका अधिकार चाहे जैसा हो लेकिन हिंसाका सहारा लेना तो कदापि उचित नहीं होगा। हिंसाकी कार्रवाई करके अधिकार प्राप्त करनेका रास्ता आसान तो लगता है लेकिन अन्ततः वह दुरूह सिद्ध होता है। जो तलवार चलाते हैं वे तलवारसे ही मरते हैं। तैराकोंकी मृत्यु बहुधा पानीमें ही होती है।