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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आईं। उन्होंने भी छाती कूटना और रोना आरम्भ किया। इस रोने-कूटने में अधिकांश तो दिखावामात्र था। इसमें धर्म तो है ही नहीं। हमारे धर्म में मरे हुओंके लिए रोनेकी मनाही है। दूसरे धर्मोमें तो रोते ही नहीं है। उपर्युक्त रोने में पड़ोसीके प्रति कर्त्तव्यको तो बिलकुल भुला दिया जाता है। निकट कोई बीमार होगा, किसीके घरमें विवाह हो रहा होगा, इस [सब] का कोई विचार ही नहीं किया जाता। रोना और वह भी ऊँची आवाज में। नहीं रोयेंगे तो कोई हमारी निन्दा करेगा। इसलिए रोना-कूटना आवश्यक है और गरीब और निरक्षर लोगों में ही नहीं बल्कि अच्छे घरानोंमें भी यह रिवाज है। यह कुप्रथा, यह पाप कैसे मिटे?

फातिमाके विवाहके तुरन्त बाद ही मुझे उक्त दो कड़ुवे अनुभव हुए और मुझसे (मेरे मतानुसार) उपयुक्त भव्य अनुभवके साथ उनकी तुलना किये बिना न रहा गया। में पाठकों के सामने इन विचारोंको इस आशासे प्रस्तुत कर रहा हूँ कि हम सूक्ष्म रूपसे अपने जीवनकी जाँच करें और जो कुछ बुरा हो उसे निकाल फेंकें।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ९-५-१९२०

१७२. पत्र : एस्थर फैरिंगको

आश्रम
९ मई, १९२०


रानी बिटिया,

तुम्हें छोड़कर चला आना मुझे तनिक भी अच्छा नहीं लगा था। लेकिन मुझे प्रतीति थी कि तुम्हारे स्वास्थ्यके लिए वही अच्छा होगा। आशा करता हूँ कि तुमने जो सोच रखा था वही हुआ होगा; सिंहगढ़की आवहवा तुम्हें मुआफिक आई होगी।[१]

खेद है कि में तुम्हारे पास जितनी जल्दी पहुँचने की बात सोच रहा था वह [फिलहाल] सम्भव नहीं दिखती। जबरदस्त हड़ताल[२] आज शुरू हो गई है। यों मैं आशा तो यही करता हूँ कि यह बहुत दिन नहीं चलेगी; एक तो मिल-मालिकोंका पक्ष मजबूत नहीं है, दूसरे उनमें कोई लोहा लेनेवाला भी नहीं है। कल रातको में एक बड़ी सभा में गया हुआ था। लोगोंमें बड़ा साहस और बड़ी दृढ़ता नजर आई।

यहाँ ट्रेन्चकी लिखी हुई वे भव्य पंक्तियाँ फिर लिखे बिना जी नहीं मानता। वे पंक्तियाँ ये हैं :

'इस सबके बाद भी अगर हम
एक ही पथप्रदर्शकके इशारेपर चलें

  1. स्पष्ट है कि एस्थर फैरिंगने गांधीजीका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया था। (देखिए "पत्र : एस्थर फैरिंगको", २-५-१९२०) और वे सम्भवतः ३ या ४ मईको सिंहगढ़ पहुँची।
  2. अहमदाबादकी सूती मिलोंमें।