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१७१. तीन प्रसंग

सत्याग्रह आश्रम में एक विवाह-प्रसंग आया, इससे मेरे मनमें आश्रमम सम्पन्न इस विवाह तथा बाहर होनेवाले विवाहोंके बीच तुलना करनेकी सहज ही अभिलाषा हो आई। उससे उत्पन्न कुछ विचारोंको मैं पाठकोंके सम्मुख प्रस्तुत करनेकी आज्ञा चाहता हूँ।

इमाम साहब अब्दुल कादिर बावजीर एक कुलीन परिवारके तथा नियमके पाबन्द कट्टर मुसलमान हैं। उनके पिताश्री कुछ वर्षोंतक बम्बईकी जुम्मा मस्जिदके मुअ- ज्जिन' थे। इमाम साहब अनेक वर्षोंसे मेरे साथ ही रहते आये। जेलमें भी मेरे साथ थे। जेलके अनुभवसे उनका अपने व्यापारके प्रति मोह जाता रहा और वे सपरि- वार फीनिक्स में मेरे साथ रहने लगे। फीनिक्समें शरीरश्रम करना जरूरी था। इमाम साहबने पहले कभी शरीरश्रम नहीं किया था। तथापि फीनिक्समें वे मजदूरी करने लगे। फीनिक्ससे 'इंडियन ओपिनियन' निकलता था, इसलिए उन्होंने छापेखाने में कम्पोजिंग करनेका काम भी सीख लिया।

इमाम साहबके दो बच्चे हैं। वे मेरे साथ सगे भाईकी तरह रहते हैं और हम दोनोंने एक-दूसरेके धर्मको पूरा-पूरा सम्मान प्रदान किया है। इससे हमें इस बातका कभी दुःख नहीं हुआ कि हम विभिन्न धर्मके हैं। वे स्वयं नमाज पढ़े और हिन्दू अपने धर्मका अनुसरण करे, इसमें परस्पर एक-दूसरेने कोई बुराई नहीं देखी, इतना ही नहीं वरन् उन्होंने इसे ही सही माना है।

जब उनकी बड़ी लड़की के विवाहका अवसर आया तब हम दोनोंने सलाह-मशविरा किया। फातिमा बीस वर्षकी एक समझदार लड़की है। उससे और इमाम साहबसे परार्मश करके हमने, आश्रमके अपने निष्कांचन जीवनके उपयुक्त विवाह करनेका निश्चय किया। घुड़चढ़ी, बाजे आदिका कोई आडम्बर नहीं किया, और भोज भी नहीं दिया। विद्यार्थी अपने ब्रह्मचर्यकी महिमाको समझ सकें, इस हेतुसे उनसे भी बातचीत की और निश्चय किया गया कि वे विवाहमें भाग न लें। इमाम साहबके और वर-राजा सैयद हुसैन उरेजीके सगे-सम्बन्धियोंको आशीर्वाद देनेके हेतु आनेका निमन्त्रण दिया। घरका बना हुआ शर्बत, सूखे फल और मेवोंसे उनका स्वागत किया गया । रोशनीके नामपर एक झाड़-फानूसके अलावा और कुछ नहीं था।

विवाहकी क्रिया दो घंटेतक चली, जिसमें मंगलाचरणके रूपमें आधा घंटा, 'मौलूद शरीफ' अर्थात् अरबीमें लिखित पैगम्बर साहबके जीवन चरितका पाठ हुआ। तत्पश्चात् काजी साहबने गवाहोंके सम्मुख निकाहनामा लिखा और बम्बईके जुम्मा मस्जिदके खतीब साहब अब्दुल मुनीम बागजादाने वर-वधूसे इसे पढ़वाया। फिर उसपर हस्ताक्षर हुए। इसमें बीस-एक मिनट लगे, बादमें फातिहा अर्थात् ईश्वरको धन्यवाद,

१. नमाजके लिए अज्ञान देनेवाला।