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१७०. विधवाका अभिशाप

श्री कंचनलाल खांडवालाका पत्र विधवाओंके आंकड़ोंसे ही भरा हुआ है। जो व्यक्ति उसे पढ़ेगा उसका हृदय अवश्य ही उद्वेलित हो उठेगा। अधीर सुधारक कह उठेंगे कि इस रोगका सीधा उपाय विधवा-विवाह है। मैं यह नहीं कह सकता। मेरे भी परिवार है और उसमें अनेक विधवाएँ हैं। लेकिन उन्हें पुनर्विवाह करनेको कहनेके लिए मेरी जबान तो कदापि नहीं खुल सकती, और न वे ही फिरसे विवाह करनेका विचार कर सकती हैं। इसका सच्चा उपाय तो यह है कि पुरुषोंको भी पुनर्विवाह न करनेकी प्रतिज्ञा लेनी चाहिए।

लेकिन अन्य उपाय भी हैं जिनपर हम अमल नहीं करते, करना नहीं चाहते। वे उपाय निम्नलिखित हैं :

१. बाल-विवाह बन्द करना।

२. जबतक वर-कन्याके विवाह करनेकी ठीक उम्र नहीं हो जाती तबतक कदापि विवाह न करना।

३. जो स्त्री अपने पति के साथ बिलकुल नहीं रह पाई है उसे विवाह करनेकी छूट देना; इतना ही नहीं, उसे विवाह करनेके लिए प्रोत्साहित करना। ऐसी स्त्रियोंको विधवा नहीं माना जाना चाहिए।

४. जो पन्द्रह वर्षकी अवस्थामें विधवा हो गई और जो अभी युवा है, ऐसी विधवाको पुनर्विवाहकी छूट देना।

५. वैधव्यको अपशकुनका सूचक न मानकर उसे पवित्र मानकर सम्मान देना।

६. विधवाओंके लिए शिक्षण और धन्धेका सुन्दर प्रबन्ध करना।

यदि इतने सुधार हों तो सन्देह नहीं कि हिन्दू-समाज विधवाके अभिशापसे मुक्त हो जायेगा। ऊपर लिखित सुधार प्रत्येक परिवार और बिरादरीके लोगोंके लिए हैं। सब लोग एक दूसरेकी राह देखते हुए बैठे रहते हैं, इसीसे बहुत सारे सुधारोंपर अमल नहीं हो पाता। जिसे जिस समय [जो] पुण्य कर्म लगे उसे उसी समय उसपर आचरण करना चाहिए, यह विधिका विधान है। पापकर्म करते समय विचारें, ज्योतिषीसे परामर्श लें और हजारोंकी सलाह लेकर भी अन्ततः उसे न करें। पुण्यकर्म करते समय दूसरोंकी बाट जोहना, ईश्वरका गुनहगार बनने के समान है। फिर भी हमारा व्यवहार विपरीत ही होता है। पापकर्म करते समय डरते नहीं; पुण्यकार्य करते समय परिषदोंकी बाट जोहते हैं।

[ गुजराती से ]
नवजीवन, ९–५–१९२०
 

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