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असहयोगको कार्यान्वित कैसे करें?

हैं। वे सरकार या जनतासे ऐसा एक भी कार्य छुपाना नहीं चाहते जिसे वे किसी अवसरपर तनिक भी काममें लानेका खयाल करते हों। चौथी अवस्था अर्थात् करबन्दी इससे भी बादकी बात है। संयोजक मानते हैं कि सामान्य करोंको बन्द करनेमें सबसे अधिक जोखिम है। इसमें एक भावनाशील वर्गके पुलिससे भिड़ जानेकी सम्भावना है। इसलिए वे सम्भवतः उसे तबतक आरम्भ नहीं करेंगे जबतक उसके साथ उन्हें लोगोंका यह आश्वासन न मिल जाये कि वे हिंसा न करेंगे।

में पहले भी स्वीकार कर चुका हूँ, और फिर करता हूँ कि असहयोग खतरे से खाली नहीं है। किन्तु असहयोगकी व्यवस्था करनेमें हिंसा होनेका जो खतरा है उसकी अपेक्षा एक गम्भीर प्रश्नके सामने रहते हुए हाथपर-हाथ धरे बैठे रहनेमें कहीं अधिक बड़ा खतरा होता है। कुछ न करना निश्चित रूपसे हिंसाको निमन्त्रित करना है।

असहयोगकी निन्दामें प्रस्ताव पास करना या लेख लिखना बहुत आसान है। किन्तु अन्यायकी गहरी अनुभूतिसे उत्तेजित किसी राष्ट्रके रोषको संयत रखना आसान काम नहीं है। जो लोग असहयोगके विरुद्ध बात करते या काम करते हैं मैं उनसे अनुरोध करता हूँ कि वे कुसियाँ छोड़कर लोगोंके पास जायें, उनकी भावनाओंको समझें और तब यदि उनका दिल गवाही दे तो असहयोगके विरुद्ध लिखें। तब उन्हें भी मेरी तरह यह पता चल जायेगा कि हिंसासे बचनेका एकमात्र मार्ग लोगोंको अपनी भावनाको इस प्रकार प्रकट करनेका अवसर देना है जिससे उनकी शिकायतें दूर हो सकें। मुझे तो असहयोगके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं मिला है। यह तर्कसम्मत और निरापद है। जो सरकार अपनी प्रजाकी बात नहीं सुनती, उस प्रजाको स्वाभाविक अधिकार है कि वह उसकी सहायता करनेसे इनकार कर दे।

एक ऐच्छिक आन्दोलनके रूपमें असहयोग केवल तभी सफल हो सकता है जब लोगोंकी भावना इतनी सच्ची और प्रबल हो कि लोग उसके लिए अधिक से अधिक कष्ट उठा सकें। यदि मुसलमानोंकी धार्मिक भावनाको गहरी ठेस लगी है और यदि हिन्दू अपने मुसलमान भाइयोंके प्रति पड़ोसीका-सा भाव रखते हैं तो वे दोनों ही अपने उद्देश्यकी पूर्ति के लिए कोई भी कीमत चुकाना ज्यादा न समझेंगे । असहयोग केवल एक प्रभावकारी उपाय ही नहीं होगा, बल्कि वह मुसलमानोंकी मांगकी और हिन्दुओंके मंत्री-भावके दावेकी सचाईकी कसौटी भी होगा।

किन्तु मेरे मित्र मेरे खिलाफत आन्दोलनमें सम्मिलित होनेके विरुद्ध एक बहुत बड़ा तर्क देते हैं। वे कहते हैं कि मैं अंग्रेजोंका मित्र और ब्रिटिश संविधानका प्रशंसक हूँ । मेरा उन लोगोंका साथ देना, जिनमें आज अंग्रेजोंके प्रति शुद्ध विद्वेषके सिवाय और कुछ नहीं है, शोभा नहीं देता। मुझे खेदपूर्वक स्वीकार करना पड़ता है कि आज सामान्य मुसलमानोंमें अंग्रेजोंके प्रति कोई प्रेमभाव नहीं है। उनका खयाल है, और ऐसा माननेके लिए उनके पास कारण भी है, कि अंग्रेजोंने न्यायपूर्वक आचरण नहीं किया है। किन्तु यदि में अंग्रेजोंका मित्र हूँ तो मैं अपने देशवासी मुसलमानोंका भी

१. देखिए उदाहरणार्थ, “मैं क्यों खिलाफत आन्दोलन में शामिल हुआ हूँ?”, २८-४-१९२० और “पत्र : सी० एफ० एन्ड्यूजको", २०-६-१९२०।