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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जो अब है। आश्रम स्थापित करके भी मैंने मार्ग दिखाया है। उस रास्ते जाना और मुकामपर पहुँचना तुम्हारा और जो शरीक हुए हैं, उनका काम है। ऐसा करते हुए यदि में ज्यादा जिया और शान्तिसे काम करनेका अवसर मिला तो अपने परिपक्व अनुभवके आधारपर आश्रमकी रेखाएँ में अधिक अच्छी खींच सकूँगा। लेकिन यह अलग प्रश्न है। परन्तु इस बारेमें तुम मुझसे खूब बहस कर सकते हो।

सरलादेवी तो उस दिन अकेली ही भोजन करनेवाली थीं। इसलिए उन्होंने वहीं भोजन किया। हमेशा तो रसोईघरमें ही खाती थीं। बीमार पड़नेके बाद जबसे मैं अनाज नहीं खाता, तबसे जहां बैठा होता हूँ, वहीं खा लेता हूँ। इसमें मैंने अपनी सुविधा देखी है। इसमें मेरी शिथिलता भी कही जा सकती है। तुम्हारी शिकायत तो ठीक ही है।

मुझमें जो कट्टरता पहले थी, वह लुप्त नहीं हुई है। मेरे विचार अधिक दृढ़ हुए हैं, उनमें अधिक सूक्ष्मता आई है। मेरा वैराग्य बढ़ा है। जो मुझे धुंधला दिखाई देता था, वह अब साफ दीखता है। मेरी सहनशीलता बढ़ी है। इससे दूसरोंके बारेमें मेरा आग्रह कम हुआ है।

मेरी बाह्य प्रवृत्तियोंसे हिन्दुस्तान और आश्रमने कमाई की है या खोया है, इसका उत्तर देना में अनावश्यक समझता हूँ।

यदि मुझे रास्ता सूझे तो मैं जरूर आश्रम में ही बैठ जाऊँ। परन्तु बात केवल मेरे ही हाथ में नहीं है। मैं चाहता हूँ कि मुझसे बात करके मुझे बाँध सको तो बाँध लो।

यह बात बिल्कुल सच है कि मेरा असली तेज जाता रहा। बीमार पड़ जानेसे में अपंग बन गया। जबसे तुम सबके साथ खड़े होकर काम करनेकी मेरी शक्ति जाती रही तबसे मेरा तेज चला गया, यह मैंने स्वयं देख लिया। मेरे शरीरमें जो वज्रकी कठोरता थी, उसके बजाय कोमलता आ जानेसे में बहुत-सी चीजें सहन कर रहा हूँ। मुझे कभी किसीने हवा बदलने के लिए जाते देखा भी था? [किन्तु] मैं आज ऐसा बन गया। मुझपर जो खर्च हुआ है, उसका विचार करता हूँ तब तो और भी ज्यादा घबराता हूँ। दूसरे दर्जेमें बैठते शरमाता हूँ। ऐसा होता है तब मेरी आत्मा क्लेश पाती है और अवश्य निस्तेज होती है। इसका उपाय ही नहीं है। मेरा सुन्दरतम काल चला गया। अब तो मेरे विचारोंसे जो-कुछ लिया जा सकता है, वही लेनेको रह गया। मैं जो आदर्श आचरणवाला था, सो खतम हो गया। मेरी ऐसी दयाजनक स्थिति है। इसमें अतिशयोक्ति नहीं है। प्रसंगोपात्त उपर्युक्त उद्गार कई बार व्यक्त किये हैं।

परन्तु इन बातों में तुम्हें या मुझे निराश होनेका कोई कारण नहीं है। हम अपनी खामियाँ देख लें और जहाँतक सम्भव हो, उन्हें दूर करें। मेरे पचास वर्षों में तुम्हें बहुत सीखनेको मिला है, उसे संग्रह करो। उसपर इमारत बनाओ, स्वयं शोभायमान बनो और मुझे शोभान्वित करो। जहाँ तुम्हें दिक्कत हो, वहाँ मुझे बताओ। अपने-आप दूर कर सको, उन्हें दूर कर लो। घबराओ मत। इस पत्रमें कहीं भी अनर्थ हुआ हो तो उसे मनमें मत रखना, परन्तु उसकी सफाई करा लेना।