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पत्र: मगनलाल गांधीको

दिनतक तो मैंने इस विचारका खूब मुकाबला किया। किन्तु लायलकी याद आने- पर में ढीला पड़ा, और ऐसा लगा कि तुम्हारी भी इच्छा हो जाये, तो मैं मोटरकी भेंट ले लूं। परन्तु मुझे मोटरका मोह तो इतना कम है कि अक्सर मैंने यह चाहा है कि अनसूयाबेनकी मोटर टूट जाये। फिर भी इतना सही है कि जितना बड़ा विरोध पहले था, उतना अब नहीं है। इसलिए यह प्रश्न पूछने में तुम मेरी शिथिलता मानो, तो मैं ठीक ही समझूँगा।

गुरुदेवके बारेमें तो मैं केवल साक्षी ही रहा। तुम सबकी इच्छाके अनुसार चला हूँ। मैं खुद तो मेहराबों वगैरामें न पड़ता। उनकी पूजा करनेका कुछ-न-कुछ आसान रास्ता ढूंढ़ निकालता। जो-कुछ हुआ, उसके बारेमें मैं बिलकुल तटस्थ हूँ। मैं मानता हूँ कि उनका सुन्दर ढंग से स्वागत करना हमारा कर्त्तव्य था। मुझे ऐसा नहीं लगा कि उसमें लगने से विद्यार्थियोंकी कोई हानि हुई है। यह बात ध्यानमें रखने लायक है कि इसमें उन्होंने अपने सेवा-धर्मका आचरण किया। और गुरुदेव तो बहुत असाधारण व्यक्ति हैं। उनमें कवित्व, सावुता और देश-प्रेम है। यह मेल अलौकिक है। वे पूजाके योग्य हैं, उनकी सरलता कैसी अद्भुत है!

फातिमाके लिए जो हुआ, वह तो मुझे लगता है बिलकुल ठीक हुआ । इमाम साहब मुसलमान हैं, इतना याद रखें, तो हमें महसूस होगा कि हमने कुछ भी अधिक नहीं किया। हर कदम विचारपूर्वक उठाया गया है। हम यह स्वीकार कर लें कि हम उसका विवाहोत्सव मनानेको बँधे हुए थे, तो सब-कुछ ठीक ही हुआ है। फिर भी इमाम साहब अधिक सादगी रख सकते थे। जेवर कुछ भी न बनवाते तो अधिक अच्छा कहलाता। परन्तु इतनी ज्यादा आशा कैसे की जाये? इस मामले में मैं तुम्हें अधिक सन्तोष देना चाहता हूँ।

यह निश्चित मानो कि प्रवृत्तियों में हरगिज नहीं ढूंढ़ता। तुम्हें ऐसी कौनसी प्रवृत्ति दिखाई दी, जिसे मैंने ढूंढ़ा हो। खिलाफत में न पड़े तो समझूगा कि सर्वस्व खो दिया। उसमें तो मेरा सारा विशेष धर्म आ गया। उसके द्वारा मैं अहिंसाका स्वरूप दिखा रहा हूँ, हिन्दू-मुसलमानोंको एक कर रहा हूँ, सबके सम्पर्क में आ रहा हूँ। और यदि असहयोग अच्छी तरह चले, तो महा-पशुबलको एक सादी-सी लगनेवाली चीजके सामने झुकना पड़ेगा। खिलाफत भारतीय समुद्रका मन्थन करनेवाली भारी मथनी है। उसमें से क्या निकलेगा, इसके साथ हमारा क्या सम्बन्ध? हमें केवल इतना ही देखना है कि यह प्रवृत्ति शुद्ध और उचित है या नहीं। जिन-जिन विषयोंमें मैंने शक्तिका विकास किया है उन्हें में हरगिज नहीं छोड़ सकता। मेरा मोक्ष भी उन्होंमें लगे रहनेसे सम्भव है। यदि में ऐसा न करूँ तो आश्रम द्वारा भी में कुछ नहीं दे सकता। ऐसे ही कारणों से डोकने मुझे मार्गदर्शक माना था। अपनी पुस्तकका नाम उन्होंने 'पाथ-फाइंडर' अथवा 'जंगल-ब्रेकर' रखना चाहा था, परन्तु पोलकका सुझाव मानकर उन्होंने वह नाम रखा,

१. ईसाई मिशनरी, जो आश्रममें अंग्रेजी पढ़ाने आते थे।

२. क्योंकि उसके माता-पिता आश्रमके पूरे समयके कार्यकर्ता थे।

३. जोसेफ जे० छोक लिखित एम० के० गांधी : एन इंडियन पैट्रिअट इन साउथ आफ्रिका।