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पत्र:सरलादेवी चौधरानीको


अन्तस्त्यक्त कषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।

यदृच्छयाऽऽगतो भोगो न दुःखाय न तुष्टये।।१४।।

जनक अपनी स्थितिमें शंका प्रकट की जानेपर भी अपनी आनन्दातिरेककी अवस्था कायम रखते हुए चौथे अध्याय में जवाब देते हैं:

हन्तात्मजस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया।

नहि संसारवाहीकैर्मुढै: सह समानता॥ १ ॥

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः।

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति॥ २ ॥

तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते।

नह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि संगतिः ।। ३ ।।

आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।

यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धं क्षमेत कः ॥ ४ ॥

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।

विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविसर्जने ॥ ५ ॥

आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानाति जगदीश्वरम्।

यद्वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित् ॥ ६ ॥

तुम देखोगी कि चौथे अध्यायके श्लोक कुछ खतरनाक से हैं। वह नाजुक मेदेको भारी पड़नेवाली खुराक है। सभी अध्यायोंका विस्तार समान नहीं है। उदाहरणके लिए तीसरे अध्याय में चौदह श्लोक हैं, जब कि चौथेमें केवल छः ही हैं।

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : नारायण देसाई

१. (१४) कषायका जिसने अन्तरसे त्याग कर दिया है, जो निर्द्वन्द्व है और जो आशासे रहित है उसे सहज प्राप्त होनेवाला भोग न दुःखकर होता है और न सुखकर हो।

२. (१) अरे, भोगलीलासे क्रीडा करते हुए और आत्मज्ञानी धीर (मनुष्य) के साथ संसारका भार वहन करनेवाले मूढकी तुलना ही नहीं हो सकती।

(२) इन्द्रादि सब देवता जिस पदकी इच्छा करते हैं और (जिसे न पाकर) लाचार हो जाते हैं, उस पद स्थिर हुआ योगी हर्षको प्राप्त नहीं होता।

(३) इसे (आत्मपदके) जाननेवालेको अन्तरमें पाप-पुण्यका वैसे ही स्पर्श नहीं होता, जैसे इस प्रकार दिखाई देनेपर भी आकाशको धुएंका संग नहीं होता।

(४) जिसने यह जान लिया है कि यह सारा जगत् आत्मरूप ही है, उस महात्माको सहज क्रियाएँ करनेसे कौन रोक सकता है?

(५) ब्रह्मासे लेकर तृणतक चार प्रकारको भूतसृष्टिमें केवल ज्ञानीमें ही इच्छा-अनिच्छाको त्यागनेकी शक्ति है?

(६) (अपनी )आत्मा और जगदीश्वरको बिरला ही अद्वैतरूप जानता है । वह जैसा जानता है, वैसा ही आचरण करता है। उसे किसीका भी डर नहीं।