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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

मुनर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्त्तते॥५॥

आस्थितः परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः।

आश्चर्य कामवशगो विकल: केलिशिक्षया॥६॥

उद्भूतं ज्ञानदुमित्रमवधार्यातिदुर्बलः।

आश्चर्य काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रितः॥७॥

इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः।

आश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका॥८॥

धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा।

आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति॥९॥

चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत्।

संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुम्येन्महाशयः।।१०।।

मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकोतुकः।

अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः।।११।।

निःस्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मनः।

तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते।।१२।।

स्वभावादेव जानाति दृश्यमेतन किंचन।

इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स कि पश्यति धीरधीः॥१३॥

१. (५) आत्माको सर्वभूतों और सर्वभूतोंको आत्मा में जाननेवाला मुनि भी ममत्वके पीछे पड़ता है, यह आश्चर्य है।

(६) आश्चर्य है कि परम अद्वैतमें स्थित हुआ और मोक्षके लिए प्रयत्न करनेवाला (मनुष्य) भी भोगके अभ्यासके कारण कामके वश होकर व्याकुल हो जाता है।

(७) आश्चर्य है कि काम ज्ञानका शत्रु है, यह जानकर भी अतिदुर्बल और अन्तकालके निकट पहुंचा हुआ (मनुष्य) विषय-भोगकी आकांक्षा रखता है।

(८) लोक-परलोक, दोनों के प्रति विरक्त, नित्य-अनित्यका विवेक करनेवाला और मोक्षकी इच्छावाला मनुष्य मोक्षसे ही डरता है, यह आश्चर्य है।

(९) भोग भोगते और पीड़ित होते हुए भी धीर मनुष्य जो सदा केवल आत्माको ही देखता रहता है, न तो प्रसन्न होता है, न कोप करता है।

(१०) जो अपने प्रवृत्तिमय शरीरको दूसरेके शरीरको तरह देखता है, वह महाशय स्तुति अथवा निन्दासे कैसे क्षुब्ध होगा?

(११) जो इस विश्वको केवल मायारूप ही देखता है, जिसमें उसके प्रति कुतूहल नहीं रहा, वह घोर बुद्धिवाला मनुष्य मृत्यु निकट होते हुए भी कैसे त्रस्त होगा?

(१२) आत्मज्ञानसे तृप्त जिस महात्माका मन निराशामें भी निःस्पृह रहता है, उसकी तुलना किसके साथ हो सकती है?

(१३) यह दृश्य (विश्व) मूलमें हो कुछ नहीं है, यह जाननेवाला धीर मुद्धिवाला (मनुष्य) क्या यह देखता है कि यह ग्राथ है और यह त्याज्य है?