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पत्र: सरलादेवी चौधरानीको

जो धर्मके नामसे होते हैं उसमें भी अधर्म देख रहा हूँ। यदि मैंने जो लिखा है वह स्पष्ट नहीं होगा तो आप मुझे फिर भी पूछेंगे।

गुरुकुलका कार्य अब अच्छी तरहसे चलता होगा। अब चार दिनसे इस एकान्त स्थानमें आया हूँ।*

आपका,

मोहनदास

महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ५

१६२. पत्र : सरलादेवी चौधरानीको

३ मई, १९२०

प्रिय सरला,

जनकको इस अनुभूतिसे कि मैं 'पूर्ण ब्रह्म हूँ' आनन्दविभोर देखकर अष्टावक्र तीसरे अध्यायमें उनकी स्थितिपर शंका प्रकट करते हुए कहते हैं:

अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः।

तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः ।। १ ।।

आत्माज्ञानादहो प्रीतिः विषयभ्रमगोचरे ।

शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे ॥ २ ॥

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे ।

सोऽहमस्मीति विज्ञाय कि दीन इव धावसि ॥ ३ ॥

श्रुत्वाऽपि शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम् ।

उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति ॥ ४ ॥

१. स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा स्थापित गुरुकुल काँगड़ी, हरद्वार।

२. गांधीजी सिंहगढ़में एकान्तवास कर रहे थे।

३. अष्टावक्र बोले:

(१) आत्माको तत्त्वतः एक और अविनाशी जान लेनेके बाद तुझ-जैसे आत्मश और धीरको अर्थों- पार्जनमें प्रीति कैसे होती है?

(२) जैसे सीपके अज्ञानते चांदीका विभ्रम होनेपर उसमें लोभ उत्पन्न होता है, वैसे ही अरे, आत्मा के अज्ञानसे विषय-रूपी भ्रमात्मक वस्तुओंमें प्रीति होती है।

(३) जहाँ यह विश्व सागरमें तरंगोंकी तरह स्फुरित होता है, वह मैं ही हूँ, यह जानकर (भी) तू दीनको तरह क्यों भागता है?

(४) आत्मा शुद्ध चैतन्य रूप और अति सुन्दर है, यह सुन लेनेपर भी जो विषयेन्द्रियके प्रति अत्यन्त आसक्त रहता है, वह मलिनताको प्राप्त होता है।

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