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पत्र: सरलादेवी चौधरानीको

स्थिति खरनट बीननेवाली दुबली-जैसी है, तथापि वे प्रसन्न-मनसे हवलदार-- भीख देनेके योग्य हवलदारों अर्थात् देशसेवकों को घूघरी देते हैं।

इससे एक दूसरा अनुमान यह भी लगाया जा सकता है कि शहरकी अपेक्षा गाँवों में राष्ट्रीय कार्य करना सहल है; इसलिए यही स्वाभाविक है कि गाँवके स्वराज्य से शुरू करके शहरके स्वराज्यतक पहुँचा जाये।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, २-५-१९२०

१५५. पत्र : सरलादेवी चौधरानीको

२ मई, १९२०

कल अष्टावक्र गीता" के पहले अध्यायसे कुछ चुने हुए श्लोक भेजे थे। उसमें जनक यह सीखते हैं कि अपने मोक्षका उपाय अपने ही हाथों में है; यह उपाय है इन्द्रियोंके मोहजालसे छूटना। दूसरे अध्यायमें जनक इस ज्ञानकी प्राप्तिपर अपनी आनन्दानुभूति प्रकट करते हैं। इनमें से कुछ श्लोक नीचे दे रहा हूँ:

अहो निरञ्जनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः।

एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडम्बितः॥१।।

तन्तुमात्रो भवेदेव पटो यद्वद्विचारितः।

आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद्विश्वं विचारितम् ॥ ५ ॥

आत्माज्ञानात् जगद् भाति आत्मज्ञानान्न भासते ।।

रज्ज्वज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाद् भासते न हि ॥ ७ ॥

मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति।

मृदि कुम्भो जले वीचिः कनके कटकं यथा ।।१०।।

अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।

अरण्यमिव संवृत्तं क्व रति करवाण्यम् ॥२१॥

१. अष्टावक्र ऋषि रचित तत्त्वज्ञानका एक प्रमुख ग्रन्थ।

२. देखिए “पत्र : सरलादेवी चौधरानीको ", १-५-१९२०।

३. में निरजंन, शान्त, ज्ञानरूप और प्रकृतिसे परे हूँ। अबतक मोहसे गुमराह था। जैसे विचार करनेसे मालूम होता है कि वस्त्र तन्तुरूप ही है, वैसे ही विचार करनेसे विदित होता है कि (यह ) विश्व आत्मरूप हो है । आत्माके अज्ञानके कारण जगत्का आभास होता है, आत्माका ज्ञान होनेपर वह (जगत्) भासित नहीं होता । रस्सीके अज्ञानसे ही (उसमें) सर्पका आभास होता है। उसका ज्ञान होते ही वह (सर्व) मासित नहीं होता । जैसे घड़ा मिट्टीमें, तरंग पानीमें और कड़ा सोनेमें लय हो जाता है, वैसे मुझसे बाहर निकला हुआ विश्व मुझीमें लप होता है। अहो, जनसमूहमें भी द्वैत न देखनेवाले मुझको (सब) अरण्य-जैसा हो गया है (तो) मैं किसमें रति रखूँ ?