पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 17.pdf/४३५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५१. पत्र: जमशेदजी नसरवानजी मेहताको'

सिंहगढ़

[१ मई, १९२०]

भाईश्री जमशेदजी,

आपने मुझे पत्र लिखा सो अच्छा किया। आपको अथवा आपके मनोगत भावोंको मैं समझ न सकूँ, सो बात नहीं है। उसी तरह यह भी नहीं कहा जा सकता कि जो व्यक्ति असहयोगके विचारके विरुद्ध है वह मुसलमानोंका मित्र नहीं है। मैत्रीमें भी मतभेद हो सकता है।

अब आपके प्रश्नोंका उत्तर देता हूँ:

१. असहकारका प्रभाव सरकार विरोधी अवश्य होगा; लेकिन इस असहकारकी कल्पना प्रतिकारकी भावनासे नहीं की गई है, इसलिये सरकारने क्या अपराध किया है, इसका प्रश्न उठ ही नहीं सकता। तथापि सरकारको जितना करना चाहिए उतना उसने नहीं किया है। यदि इंग्लैंडकी सरकार न्याय प्राप्त नहीं करा पाती तो भारतकी सरकार त्यागपत्र दे सकती है। हिन्दुस्तानकी सरकार ऐसे समय मात्र "विरोध" प्रकट करके सन्तुष्ट नहीं रह सकती; यह उसकी त्रुटि है। इसलिए जनता सरका रसे अपना सहकार बन्द करके अपना असन्तोष प्रगट कर सकती है।

२. हम किसीको जान-बूझकर दुःख नहीं दे सकते; लेकिन यदि हमारे किसी ऐसे कार्यसे जो अनिवार्य है, किसीको दुःख हो तो उसके लिए हम उत्तरदायी नहीं हैं। सरकारी नौकरीसे त्यागपत्र देनेका मुझे अधिकार है। त्यागपत्र देने से सरकारको दुःख हो तो उससे मैं हिंसक नहीं होता। कल्पना कीजिये में पिताके साथ घरमें रहता हूँ और उनकी यथाशक्ति सेवा भी करता हूँ, लेकिन यदि उन्हें कुछ अन्याय करता देख- कर में गृहत्याग करके उनके साथ काम आदि करना बन्द कर दूं तो उससे उन्हें दुःख तो अवश्य होगा, तथापि मेरा वह गृहत्याग करना ही कर्त्तव्य हो सकता है। यह दुःख वास्तव में मेरे पिताने स्वयं ओढ़ा है। यदि हम इस तरहसे आचरण न करें तो संसारमें अत्याचारी-मात्रको अत्याचार करनेका परवाना मिल जाये।

३. इससे आप देखेंगे कि हमें हिंसा किये बिना असहकार करनेका अधिकार है, इतना ही नहीं बल्कि वह हमारा कर्तव्य है।

१. कराचीके पारसी व्यापारी और समाजसेवक।

२. जमशेदजीके २४ अप्रैल, १९२० के पत्रके उत्तर में यह पत्र लिखा गया था। साधन-सूत्र में इस पत्रकी तारीख १९ मई दी गई है जो स्पष्टतः एक भूल है। सम्भवतः १ की जगह “ १९ " गलत छप गया, गांधीजी २९ अप्रैल से ४ मई, १९२० तक सिंहगढ़ में थे।