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१५०. पत्र : सरलादेवी चौधरानीको

१ मई, १९२०

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज।

क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद् भज॥२॥

यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्रम्य तिष्ठसि।

अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि॥४॥

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।

किंवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥११॥

कल मैंने बीस श्लोक पढ़े। उनमें से मुझे जो सबसे अधिक सशक्त लगे, उन्हें छाँटकर यहाँ दे दिया है। मुझे याद आया एक बार तुमने कहा था कि दूसरे कवियों- की दूसरी चीजें तुमपर जितना असर करती हैं, उतना 'भगवद्गीता' नहीं करती। इसलिए हो सकता है, इन इलोकोंका भी तुमपर कोई असर न हो। परन्तु मेरे मन- पर उस समय उनका बड़ा पुनीत प्रभाव पड़ा और मैं तुमको भी उनका लाभ देनेका लोभ संवरण नहीं कर पाया। इसके अतिरिक्त मुझे इन दिनों मजबूरन बेकार पड़े रहना पड़ता है। क्योंकि अबतक मैं खाट नहीं छोड़ पाया हूँ। ऐसी स्थितिमें इन श्लोकोंको पढ़कर मुझे बड़ी सांत्वना मिलती है।

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : नारायण देसाई।


१. अष्टावक्र गीताके प्रथम अध्यायमें मुनि जनकसे कहते हैं: हे तात, यदि तू मुक्ति चाहता है तो विषयोंको विष समझकर उनका त्याग कर और क्षमा, ऋजुता, दया, सन्तोष और सत्यका अमृतकी भाँति सेवन कर।

यदि तू देहको अलग करके चिद् (रूप) में स्थिर होकर रहेगा तो तत्काल सुखी, शान्त और बन्धनमुक्त हो जायेगा।

जो अपनेको मुक्त मानता है वह मुक्त ही है और अपनेको बद्ध मानता है वह बँधा हुआ है। यह कहावत सच है कि जैसी मति वैसी गति।

२. गांधीजीके पैरमें कुछ तकलीफ हो गई थी इसी कारण २९ अप्रैलसे ४ मईतक उन्होंने सिंहगढ़ में विश्राम किया था। यह पत्र भी वहींसे लिखा गया था।